18 September 2008

रातों को उठ-उठ कर जिनके लिए रोते हैं
वो अपने मकानों में आराम से सोते हैं

कुछ लोग जमाने में ऐसे भी होते हैं
महफिल में तो हंसते हैं तन्हाई में रोते हैं

दीवानों की दुनिया का आलम ही निराला है
हंसते हैं तो हंसते हैं रोते हैं तो रोते हैं

किस बात का रोना है किस बात पे रोते हैं
किश्ती के मुहाफिज ही किश्ती को डुबोते हैं

कुछ ऐसे दीवाने हैं सूरज को पकडते हैं
कुछ लोग उम्र सारी अंधेरा ही ढोते हैं

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