15 June 2011

चलें हिमालय ताऊ महाराज के दर्शन करने

80 दिन हो गये हैं, ताऊ डाट इन पर कोई पोस्ट नहीं आयी है। 26 मार्च 2011 को रामप्यारे जी खबर दी थी कि ताऊ महाराज दंडकारण्य में रामप्यारी के साथ विश्राम के लिये गये हैं। हमें विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि ताऊजी अपनी ब्लॉगशक्तियां बढाने के लिये हिमालय में घोर तपस्या कर रहे हैं। हमारा मन भी आजकल ब्लॉगिंग में ज्यादा नहीं लग पा रहा है। ताऊ जी की पोस्ट पढ-पढ कर ही तो हमें कुछ लिखने के आईडिये आते थे। ताऊजी ने जिद लगा रखी है कि जबतक ब्लॉगशिव दर्शन नहीं देंगे, तबतक ताऊजी तपस्या में लीन रहेंगे। तो हमने सोचा कि चलो ताऊजी की पोस्ट ना सही, ताऊ जी के दर्शन ही कर आते हैं। मैं और जाट देवता आज हिमालय पर जा रहे हैं। ताऊजी के तपस्थल की पूरी जानकारी नहीं है, फिर भी बस दूर से ही एक बार ताऊ जी के दर्शनों की अभिलाषा पूरी हो जाये। आप शुभकामनायें दीजिये और आप भी ताऊ महाराज के दर्शन करना चाहते हैं तो स्वागत है हमारे साथ चलने के लिये।

07 June 2011

इन मास्टर जी को नमस्ते मत करना

कोयले का इंजन और आरक्षण आंदोलन की याद
दरवाजे से हवा आता है, खिडकियों से खुशबू आती है
स्कूल में दाखिले का पहला ही हफ्ता था। उस दिन शनिवार था और शनिवार को 12:20 वाली रेल नहीं आती थी। 11:15 वाली ट्रेन के लिये स्कूल से कुछ मिनट पहले ही छुट्टी लेकर मैं स्टेशन पर आ गया। इसके बाद रोहतक से साँपला जाने के लिये ट्रेन 03:50 पर ही थी। 11:15 हो चुके थे और गाडी आने ही वाली थी कि तभी गणित के मास्टरजी मेरे सामने आ गये। असल में हमारे स्कूल और रोहतक शहर के मुख्य बाजार के बीच में रेलवे स्टेशन है। और ज्यादातर लोग स्कूल और बाजार में आने-जाने के लिये स्टेशन और प्लेटफार्म के अन्दर से ही गुजरते थे। 
मैं दोस्तों की बताई बात (कि इन मास्टरजी को नमस्ते मत करना) भूल गया और मास्टरजी को नमस्ते फेंक मारी। मास्टरजी कुछ बोले नहीं बस मुझे हाथ से अपने पीछे आने का इशारा कर दिया। मैंनें तेजी से उनके साथ चलने की कोशिश की और पूछा कि हाँ मास्टर जी बोलिये क्या काम है? मास्टरजी बस हाथ से इशारा करते रहे और चलते रहे। वो बहुत तेजी से चल रहे थे और मुझे लगभग भागना पड रहा था। मेरे दिमाग में एक बात घूम रही थी कि मेरी ट्रेन छूटने वाली है। लेकिन मैं डर गया कि कहीं मास्टरजी गुस्सा ना हो जायें और शायद इन्हें कुछ कहना हो या काम हो। मैं उनसे पूछता रहा और वो इशारा करते हुये मुझे स्टेशन से काफी दूर ले आये थे। 
भिवानी स्टैण्ड पर आने के बाद मैनें मास्टर जी का हाथ पकड लिया और कहा मास्टर जी मेरी ट्रेन छूट जायेगी, बताईये क्या काम है, मुझे कहां लेकर जा रहे हैं? उन्होंने बस इतना कहा - "जाओ"। अब मैं भागा पूरी ताकत से स्टेशन की तरफ, लेकिन रेल छूट चुकी थी और साढे चार घंटे इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। सभी दोस्त भी जा चुके थे। पडा रहा वहीं स्टेशन पर और याद करता दोस्तों की दी हिदायत।

जब कोई दो छात्र साथ जा रहे होते थे तो मास्टर जी उनको धकियाते हुये उनके बीच से ही निकलते थे। हर महिने कक्षा से गैरहाजिर रहने वाले छात्रों पर 20-30 पैसे रोजाना के हिसाब से जुर्माना लगाया जाता था। मास्टर जी पहले दिन सबको बता देते कि किसपर कितना जुर्माना है और सभी खुले (छुट्टे) लेकर आयें। अगले दिन मास्टर जी एक कटोरी लेकर आते और हर बच्चे के सामने हाथ फैला कर निकलते। जिस छात्र को जितना जुर्माना लगाया गया है, वो कटोरी में डाल देता। 
उनके सजा देने के तरीके भी अलग ही थे। किसी छात्र की साईकिल पर बैठ जाते और छात्र से धक्के लगवाते। कभी-कभी तो साईकिल को किसी गड्डे या कांटों वाली जगह घुसा कर ही उतरते। एक छात्र पढाई में और शरीर से बहुत कमजोर था। हमारी कक्षा में सबसे छोटा और पतला भी था, वह उनके घर के नजदीक रहता था। उसकी जिम्मेदारी थी मास्टरजी का लोहे का गोला घर से स्टेडियम लाना और ले जाना। उस बेचारे का खुद का वजन 20-25 किलो था और 6-7 किलो का गोला उससे उठाना पडता था। सख्त आदेश था कि कहीं भी गोला जमीन पर नहीं रखना है और घर से दूरी थी ढाई-तीन किलोमीटर। उसे कहते थे तू मेरे हसीन पार्क में गुल्ली-डंडा क्यूं खेलता है? अब ये हसीन पार्क के बारे में भी सुन लीजिये आप।  मास्टर जी के घर में उनके कमरे  की खिडकी से एक मैदान नजर आता था। जहां लोग (महिलायें भी) शौचादि के लिये जाया करते थे, उसे मास्टरजी हसीन पार्क कहते थे। :):):)

मास्टर जी का पढाने का तरीका भी सबसे अलग था। उन्होंने कक्षा 6 से कक्षा 10 तक में कभी भी पढाते वक्त पुस्तक हाथ में नहीं ली। बस आते ही कहते थे फलाने पेज का फलाना सवाल और ब्लैकबोर्ड पर समझाना शुरु कर देते थे। हालांकि गणित बहुत बढिया तरीके से पढाते थे। बार-बार समझाते थे। किसी भी कक्षा का छात्र किसी भी समय, कहीं भी उनसे  मदद ले सकता था।

एक मजेदार बात और याद आ रही है। हमारी कक्षा में दो छात्र जो बडे घरों के थे, उन्हें रोजाना एक बडा जग देकर कहते इसमें 2 रुपये का दूध लेकर आओ। उस समय दूध का भाव 5-6 रुपये होता था, फिर भी एक तीन किलो के बर्तन में 300-400 ग्राम दूध मंगवाना??? किसी दूसरे छात्र से नहीं मंगवाते थे, बस उन्हीं दोनों बडे घर के छात्रों से, बेचारे दोनों को जाना पडता था। कभी-कभी दोनों गिलास छुपा कर ले जाते और कक्षा में घुसने से पहले जग में डालकर मास्टर जी को देते थे। लेकिन मास्टर जी को पता चल जाता था। दूसरे छात्र ही बता देते थे। मास्टर जी इस दूध के बर्तन को मेज पर लेकर बैठ जाते। जेब से आयोडेक्स मल्हम जैसी बेहद काली दवा जैसी चीज की एक शीशी निकालते और  थोडी दवाई घोल-घोल कर उसके ढक्कन से दूध पीते। दवाई मिला काला दूध उनके कपडों पर गिरता था, लगता था जैसे जानबूझ कर गिरा रहे हैं।

छात्रों को एक ही गाली देते थे - "हुश्श सडियल"। एक लडके का नाम दिनेश कुमार था, हम उसे D.K. कहते थे और मास्टर जी उसकी पदवी बढा कर उसे बोस D.K. कहते थे। एक बार का किस्सा याद आ रहा है। नवम्बर के उस दिन भारत-पाकिस्तान का कोई मैच था। सचिन उस समय क्रिकेट टीम में नये ही आये थे, शायद। गणित के मास्टर जी हमें छत पर खुले में बैठा कर हमारे तिमाही इम्तहान के पर्चे क्रिकेट सुनते हुये चैक कर रहे थे। रेडियो हमारी कक्षा के ही एक छात्र का था। कमेंट्री सुनते हुये बीच-बीच में पता नहीं किन चीजों से नाराज होने पर उन्होंने एक-एक करके कई छात्रों के पर्चे नीचे सडक पर फेंक दिये। जिस छात्र का पर्चा बाहर गिरता, वही छात्र दौड कर नीचे स्कूल से बाहर भागता और पूरी कक्षा हँसती। फिर रेडियो को हाथ मारा और रेडियो नीचे। पता लगा कि सचिन आऊट हो गया है। बाद में जब हमने अपने पर्चों में पाये मार्क्स देखे तो मजा ही आ गया। जिस छात्र ने कुल छ्ह नम्बर के सवाल ही हल किये थे उसके नम्बर 20 हैं और जिसने पूरे सवाल हल कर रखे थे उन्हें कुल 2 नम्बर मिले हैं। यानि जब सचिन ने छक्का लगाया तो 6 नम्बर दे दिये, चाहे सवाल 2 नम्बर का ही था।  
किस्से तो बहुत हैं जी, पर और भी गम हैं, जमाने में मुहब्बत के सिवा
किसी ढंग के ब्लॉग पर जाईये और कुछ अच्छी कहानी-कविता पढिये। क्या यहां फालतू में जमे बैठे हो।  

06 June 2011

रामदेव ने लाठी मारी : नारी ब्लॉग से एक दर्जन सवाल

मैं बाबा रामदेव का भक्त नहीं हूँ, ना कभी इनके दर्शन किये हैं, ना कभी इनके वीडियो देखे या सुनें हैं और कई बार कुछ मुद्दों पर कई बार इनकी आलोचना भी कर चुका हूँ। लेकिन कोई भी व्यक्ति मेरे विचार से किसी अच्छे कार्य के लिये खडा होता है, तो मेरा समर्थन उसके साथ है।
नारी ब्लॉग पर जनहित में जारी एक पोस्ट लिखी गई है। मैं लेखक/लेखिका से पूछना चाहता हूँ कि 
2> मैनें भी रजिस्ट्रेशन का फार्म भरा था। लेकिन ट्रस्ट ने पैसा देने का आश्वासन नहीं दिया तो मैंनें अनशन पर बैठना रद्द कर दिया।:)  शनिवार को फेसबुक पर सुबह 11:00 मैनें अपने मोबाईल से खींची फोटो भी प्रकाशित कर दी थी।
3> एक भी पुलिसवाला बताईये जिसे चोट लगी है। जिसने पत्थर खाये थे।
4> रामदेव जी चाहते थे कि उनका गला घोंटने की कोशिश की जाये, वाह!
5> जो सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ बोलते, लडते हैं, उन्हें ही क्रान्तिकारी कहा जाता है। कुछ कानून तो भगतसिंह और चन्द्रशेखर को भी तोडने पडे होंगें।
6> सुबह मैदान में एन्ट्री दिल्ली पुलिस की चैकिंग और निगरानी में हो रही थी, तो पुलिस ने उसी समय क्यों नहीं रोका कि 5000 लोग पूरे हो गये हैं। इतने की ही परमिशन है। 
7> कलमाडी भी पढे-लिखे हैं, तो क्या इनको गुरु मानें?
8> पार्टियां पैसे देकर रैली करवाती रही हैं, लेकिन अन्ना, रामदेव जैसे लोगों के साथ जनता खुद होती है।
9> क्या आपने वहां आये लोगों के प्रमाणपत्र जारी किये थे कि जो वहां जनता इकट्ठी थी सब अनपढ और कम-अक्ल थी?

10> परमिशन तीन दिन के लिये थी ना कि एक दिन के लिये। खुद पुलिस आयुक्त बी के गुप्ता ने कहा है कि उन्हें दी गई इजाजत तुरन्त प्रभाव से रद्द की जाती है। तुरन्त यानि रात 12 बजे ही क्यों, दिन में क्यों नहीं?
11> आपका मन द्रवित है चोटें खाने वालों के लिये, लेकिन आपके कहे अनुसार लाठीचार्ज तो वहां हुआ नहीं, तो कितने पुलिसवाले हैं जो चोटिल हैं?
12> ये बात हजम नहीं हो रही कि, बाबा रामदेव जी को भी नारायणदत्त तिवारी जैसों के संरक्षण की जरुरत है।:) 

05 June 2011

दरवाजे से हवा आता है, खिडकियों से खुशबू आती है

श्री राज भाटिया जी, आपने सही याद किया, यह वही स्टेशन और शमशान के पास वाला स्कूल है। हमने सुना था कि प्रसिद्ध फिल्म निर्माता-निर्देशक सुभाष घई भी इसी स्कूल में पढते थे। आपकी बचपन की किसी फोटो में क्या वो भी आपके साथ हैं। 

नये स्कूल का, नयी कक्षा का, नयी किताबों का और नये दोस्त बनाने का जितना चाव था, उतना ही चाव नये अध्यापकों को जानने और समझने का भी था। आज सभी की तो याद नही है, फिर भी एक-दो का जिक्र कर रहा हूँ। किसी भी अध्यापक का नाम नहीं बताऊंगा, माफ कीजियेगा।

विज्ञान के अध्यापक तो पढाते-पढाते ही सो जाते थे और उनके मुँह से लार टपकती थी। इसी कारण जब वो पढाने के लिये पुस्तक मांगते तो कोई भी छात्र उन्हें पुस्तक नहीं देना चाहता था। हमने उनका नाम रालू रख दिया। संस्कृत के अध्यापक का नाम रखा गया हाडल, उनके पतले शरीर के कारण और इतिहास के अध्यापक का नाम रखा गया थूकल, उनकी थूक बोलते-बोलते भी गिरती थी।

गूगल से साभार
हिन्दी के अध्यापक थे मूच्छल।  छोटे कद के, 50 के आसपास की उम्र, चेहरे पर तेज, चश्मा, गोरे-चिट्टे, एकदम फिटनेस शरीर, कुश्ती के खिलाडी, रोजाना व्यायाम भी करते होंगें शायद। छोटी ऊपर की तरफ मुडी हुई लेकिन भरी-भरी मूँछे थी उनकी। जिन्हें बन्द मुट्ठी से संवारते थे।  ये कक्षा में आते ही किसी छात्र को अपनी साईकिल पर रखे थैले को लाने के लिये भेजते। थैले में से टिफिन निकालते, उसको हमें दिखाते हुये खोलते, उसमें एक छोटी डिब्बी होती थी, उसमें से एक छोटी सी पॉलीथिन की थैली को निकालकर, टिफिन वापिस थैले के अन्दर और फिर थैला वापिस साईकिल पर भिजवा देते। उस थैली में कुछ 5-7 बादाम की गिरियां होती थी, उन्हें धीरे-धीरे कुतर-कुतर कर खाते हुये हमें पढाते थे। कक्षा के पहले ही दिन उन्होंने हमारी नौवीं कक्षा से क,ख,ग लिखने और सुनाने को कहा। लिख तो लिया एक-दो छात्र ने पर एक भी छात्र ठीक से उच्चारित नहीं कर पाया। उन्होंने उसी दिन उच्चारण की गलतियों के हिसाब से सभी छात्रों की चार पंक्तियां विभक्त कर दी। जिनके नाम रखे गये कच्ची कक्षा, पक्की कक्षा, पहली और दूसरी। तीन महिनों तक हमें उनकी कक्षा में इसी अनुसार बैठना पडा था। 

अब बताता हूँ गणित के अध्यापक के बारे में जिनके बारे में जानकर आप दांतों तले ऊंगली दबा लेंगे। इनके बारे में मेरे दोस्तों ने बताया कि इन्हें कभी नमस्ते मत करना। कारण पूछने पर किसी ने कुछ नहीं बताया। (लेकिन मैं आपको बताऊंगा बादमें) इनकी शख्सियत कुछ रहस्यमयी सी थी। दूसरे अध्यापकों से बात कम ही करते थे, उनके आसपास खडे भी नहीं होते थे। कभी हँसते नहीं देखा, हमेशा कुछ बुदबुदाते हुये से, बहुत तेज कदमों से चलते थे।  उम्र लगभग 45 वर्ष, लम्बा कद, सुगठित मजबूत शरीर, काला रंग, एक आँख में कुछ डिफैक्ट, गंजा रहते थे।  एक लोहे का गोला (वजन 6.250 kgms शायद) जिसपर जंजीर लगी थी को घुमाकर फेंकते हुये इन्हें स्टेडियम में देखा था। कोई इस खेल का नाम बताये तो आभार होगा। कुछ-कुछ माईक टायसन या घटोत्कच जैसे, कई छोटे बच्चे तो इनसे डर जाते थे और कुछ बडे भी इनके सामने आने से कतराते थे। खुद कभी नहीं हँसते थे, लेकिन छात्रों और अन्य अध्यापकों को उनकी उपस्थिति और हरकतें खूब हँसाती थी। गणित के अध्यापक होने के बावजूद शेरों-शायरी करते थे। कक्षा में आते ही कहते थे-"दरवाजे बन्द कर दो, खिडकियां खोल दो"। दूसरे सभी अध्यापक खिडकियां बन्द करवा देते थे। क्योंकि खिडकियों के दूसरी तरफ महिला बी एड कॉलिज था। :) :) :) इनके आते ही कक्षा में एक बार तो हंसी की चीख-चिल्लाहट सी मच जाती थी। कहते थे दरवाजे से हवा आता है (जी हाँ आता है आती नहीं), खिडकियों से खूशबू आती है।

जैसे जर्मनी निवासी को जर्मन, मुम्बई निवासी को मुम्बईकर वैसे ही साँपला निवासियों को साँपलिया कहते हैं। लेकिन ये मास्टरजी हमें स्नेकला (Snakeला) कहते थे। गुणा को गुण्डा बोलते थे। हर साल अप्रैल में क्रीम या सफेद रंग के एक ही कपडे से एक पैंट, एक शर्ट और एक कुर्ता पाजामा बनवाते थे। जिस दिन नये सफेद जूते, नयी सफेद टोपी और एक घडी भी 20रुपये वाली डिजिटल नयी पहनकर आते थे, उस दिन स्कूल के करीबन सारे छात्र उनके पीछे-पीछे चलने की कोशिश करते थे। कोई-कोई तो उन्हें बताशे में मकोडा कहता था। शर्ट और कुर्ते पर बायीं तरफ लाल रंग के बालपैन से S लिखकर रखते थे। इसका मतलब कहते थे "शक्ति"। कई दिनों तक बिना धोये इन कपडों को पहनते रहते और जब मैले होकर सड जाते तो जूते-टोपी समेत सभी कपडों को लाल रंग से रंगवा देते। हा-हा-हा

पोस्ट लम्बी होती जा रही है, इन मास्टरजी के बारे में बहुत कुछ बाकी है, अगली पूरी पोस्ट इन्हीं के मजेदार और अनसुने किस्सों पर होगी। क्या हुआ जब मैनें इन मास्टर जी को पहली बार नमस्ते की???

03 June 2011

कोयले का इंजन और आरक्षण आंदोलन की याद

आठवीं कक्षा का परिणाम आने से पहले ही सोच लिया था कि नौवीं में दाखिला रोहतक के वैश्य स्कूल में लेना है। अन्दर ही अन्दर सोच-सोच कर खुश हुआ करता था कि ट्रेन से रोहतक शहर में जाकर पढाई करुंगा। आस-पडोस के कितने बच्चे रोहतक पढते हैं, कितना मजा करते हैं। सब अपने स्कूल की, ट्रेन-बस के सफर की बातें बताते थे तो अपने अन्दर एक हीनता महसूस होती थी। आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद पापा को मेरी जिद के आगे झुकना पडा और मुझे रोहतक के वैश्य पब्लिक स्कूल में दाखिल करवाने ले गये। वहां जाकर मेरी खुशी मेरे चेहरे से झलक रही थी और पापा के चेहरे से मजबूरी और बेबसी स्कूल की फीस और अन्य खर्चा देखकर। 

एडमिशन फार्म आदि भरने के बाद फीस भरने से पहले मैनें कहा कि पहले मैं नौवीं कक्षा में जाकर अपने दोस्तों से मिलना चाहता हूँ कि किस सेक्शन में हैं। मैं भी उसी सेक्शन में दाखिला कराऊंगा। वहां सांपला से आने वाले बच्चों का नाम बताने पर एक भी सांपला से आने वाला छात्र नहीं था। तभी किसी ने बताया कि बराबर वाली इमारत वैश्य हाई स्कूल है, शायद सांपला के छात्र उस विद्यालय में हों। हम तुरन्त बाहर निकले और वैश्य हाई स्कूल में दाखिला लिया। मेरे सभी दोस्त 'सी' सेक्शन में थे तो मेरा दाखिला भी 'सी' सेक्शन में करवाया गया। नौवीं कक्षा के 'सी' सेक्शन में जगह ना होते हुये भी 'सी' सेक्शन में दाखिला दिलाने में मदद की मेरे कक्षाध्यापक श्री प्रेमचन्द गुप्ता (P.C. Gupta) जी ने, जो मेरे पापा के जानने वाले निकले। असल में श्री पी सी गुप्ता जी के मामाजी हमारे पडोसी हैं और पापा जी से उनकी मित्रता सांपला में अपने मामा जी के घर आने-जाने से हुई थी। श्री पी सी गुप्ता जी की कक्षा में पढते हुये इस बात का खूब फायदा उठाया मैनें।  सुबह 7:30 बजे से 1:50 बजे तक कक्षायें लगती थी, पर 12:20 बजे के बाद रोहतक से सांपला आने वाली गाडी शाम 3:50 पर ही थी। जब भी जल्दी (12:20 वाली रेल से) घर जाने का मन होता उनसे ही छुट्टी लेता था।

गूगल से साभार
कुछ ही दिनों में रोहतक जाकर पढने की खुशियां ठंडी होने लगी थी। जब सुबह 5:00 बजे उठकर तैयार होना होता था और 6:00 बजे की ट्रेन पकडनी होती थी। वैसे तो 1991 में ज्यादातर रेलों में डीजल से चलने वाले इंजन ही थे पर इस पैसेंजर में कोयले वाला इंजन था।  इस ट्रेन की खिडकियां भी लकडी की होती थी। आमतौर पर रेल में ज्यादा यात्री नहीं होते थे और हमें खिडकी वाली सीट मिल जाती थी, लेकिन इंजन से कोयले के बहुत छोटे-छोटे कण और राख उड-उडकर खिडकी से अन्दर आते थे और हमारे कपडों पर गिरते थे। कभी-कभी तो कोई कण आँख में भी गिर जाता था, लेकिन खिडकी पर बैठ कर सुबह की ठंडी हवा खाने का मोह और लहलहाते खेत और खेतों के अन्दर रोज (नीलगाय) के झुंड देखना मुझे अच्छा लगता था।  तो हम सांपला के 10-12 छात्र 3:45 बजे तक स्कूल में ही रहते थे। दो बार लंच करते, अपना होमवर्क निपटाते, खेलते-कूदते, लडाई-झगडा करते, ब्लैक-बोर्ड पर चित्रकारी करते रहते। एक अलमारी हमें स्कूल में हमारा सामान रखने के लिये दे दी गई, जिसमें हम अपना होमवर्क निपटा कर बस्ता और किताबें भी वहीं रख देते थे।

कुछ सम्पन्न घरों के छात्रों ने रेल और बस दोनों पास (मासिक टिकट) बनवा रखे थे। कभी-कभी उनके साथ मैं भी बस में आने लगा। टिकट के पैसे तो मेरे पास होते ही नहीं थे और कंडक्टर भी कुछ नहीं पूछते थे। एक बार सांपला आने से 5-6 किलोमीटर पहले चैकिंग शुरु हुई। टिकट चैकर्स का 3-4 लोगों का स्टाफ टिकट चैक कर रहा था, मुझे पसीना आने लगा। एक मित्र ने अपना पास चैक करवा कर मुझे पकडाना चाहा कि यही दिखा देना, लेकिन मैं समझ ही नहीं पाया और टिकट निरिक्षक मेरे पास आ गये। मैनें कहा कि मेरे पास टिकट भी नहीं है और पैसे भी नहीं है तो उन्होंने मुझे बस से वहीं उतार दिया। तभी मेरे 5-6 मित्र (जो सभी मासिक टिकट धारक थे) भी मेरे साथ ही वहीं पर उतर गये। कहा कि तू इतनी दूर से अकेला कैसे आयेगा, हम भी तेरे साथ ही चलेंगे और उसदिन हम सब 5-6 किलोमीटर पैदल चलकर ही घर पहुँचे। एक बार और ऐसे ही 10-12 किलोमीटर पैदल चलना पडा था, जब वी पी सिंह प्रधानमंत्री थे और आरक्षण आंदोलन की आग फैली थी। रोहतक और सांपला के बीच में तीन स्टेशन हैं, अस्थल बोहर, खरावड और ईस्माइला हरियाणा। रोहतक से 3:30 वाली रेल से आते वक्त खरावड में उपद्रवियों ने रेल को रोक दिया। इंजन में आग लगा दी गई और पटरियां उखाड दी गई तो हम सांपला तक पैदल ही आये थे।