मैं जो भी करता हूं, वह मुझसे निकलता है; लेकिन मेरा होना मेरे करने से नहीं निकलता। मेरा अस्तित्व मेरे करने के पहले है। आचरण बाहरी घटना है, इसलिये यह भी हो सकता है कि मेरा कर्म मेरे संबंध में जो भी कहता हो, वह मेरी आत्मा की सही गवाही न हो। कर्म धोखा दे सकता है; कर्म प्रवचना हो सकता है; कर्म पाखंड हो सकता है। हो सकता है कि मेरे भीतर एक दूसरी ही आत्मा हो, जिसकी खबर मेरे कर्मों से न मिलती हो।
पूरी तरह असाधु होते हुये भी मैं बिल्कुल साधु का आचरण कर सकता हूं। मेरे भीतर कितना ही झूठ हो, मैं सच बोल सकता हूं। मेरे भीतर कितनी भी हिंसा हो, मैं अहिंसक हो सकता हूं। मैं बाहर से क्रोध प्रकट न करुं, और मेरे भीतर बहुत क्रोध हो। क्योंकि आचरण व्यवस्था की बात है और यह अभ्यास से संभव हो जाता है।
लेकिन आचरण से जो धोखा देता हूं, वह आपकी आंखों को दिया जा सकता है। लेकिन वह धोखा स्वयं को नहीं दिया जा सकता। इसलिये कोशिश करता हूं कि स्वयं को धोखा ना दूं।
कठिन है खुद को स्वीकारना फिर भी यत्न तो करता हूं। अच्छे लगते हैं वो जो मेरी कमियां, खामियां, गलतियां मुझे बताते हैं। पसंद-नापसंद वक्त के साथ बदलती रहती है लेकिन चेहरा बार-बार बदलना पसंद नही। वही दिखने-दिखाने की कोशिश रहती है जो मैं हूं। लिखने के लिये मेरे पास कुछ नही है और कभी होता है तो शब्द नही होते। कभी किसी की किसी पोस्ट पर टिप्पणी करना चाहता हूं तो सही और गलत, अच्छा और बुरा क्या कहूं, फर्क ही नही समझ पाता हूं। बस लोगों को पढता रहता हूं…पढता रहता हूं…पढता रहता हूं।
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