25 July 2009

थोडा तो चल रे आलसी

एक गांव में पहली बार कुछ लोग एक घोडे को खरीद कर लाये थे । उस गांव में घोडा नही होता था और उस गांव के लोगों ने कभी घोडा देखा भी नही था। जो लोग ले आये थे परदेश से, वे घोडे के शरीर से, उसकी दौड से, उसकी गति से प्रभावित होकर ले आये थे। लेकिन उन्हें घोडे के संबंध में कुछ भी पता नही था। घोडे को उन्होंनें चलते देखा था, हवा की रफ्तार से भागते देखा था। गांव में लाकर वे बडी मुश्किल में पड गये, उन्हें घोडे के बारे में कोई और जानकारी तो थी नही, ना वे उसे चलाना जानते थे। बडी मुश्किल में पड गये कि चार आदमी आगे से खींचें और चार आदमी पीछे से धकाएं, तब कहीं वह मुश्किल से कुछ-कुछ चलता ।
उन्होंनें बहुत कहा कि हमने तुझे देखा है भागते हुये। घोडा खडा सुनता रहता, वैसे ही जैसे हम सुनते रहते हैं। घोडा रोज-रोज सूखने लगा और दुबला होने लगा, क्योंकि उन्होंने पू्छा ही नही था कि उसे भोजन भी देना है। अब चलना रोज-रोज मुश्किल हो्ता गया। चार की जगह आठ और आठ की जगह दस-दस, रोज आदमी बढाने पडते जब उस घोडे को चलाना पडता। पूरा गांव दिक्कत में पड गया।
लोगों ने कहा तुम इसे क्यों ले आये हो? ऐसा वक्त आ जायेगा जल्दी कि पूरे गांव को लगना पडेगा इसे चलाने के लिये। लेकिन फिर चलाने से फायदा क्या है? ठीक है; चला कर भी देख लिया, फिर क्या करेंगें?
गांव में उस रात एक अजनबी भी रुका था, उसने भी देखा यह खेल की दस-दस आदमी धक्का देते हैं, घोडा चलता ही नहीं।
उस आदमी ने कहा - पागलों, हटो तुम यह क्या कर रहे हो?
वह अजनबी घोडे के सामने घास का एक पूला लेकर चलने लगा और घोडा इतना कमजोर था, तो भी उसके पीछे-पीछे चल दिया। आदमी दौडने लगा तो घोडे ने भी गति पकड ली।

मुझे भी सब पूला दिखा-दिखा कर चलाने की कोशिश कर रहे हैं, पर मैं हूं कि उस घोडे से भी गया गुजरा, जो पेट भर खाना खाने पर भी चलता ही नही हूं।

यह कहानी गीता-दर्शन (भाग चार) अध्याय आठ से साभार ली है। अगर ओशो इन्ट्रनेशनल फाऊण्डेशन या किसी को आपत्ति है तो हटा दी जायेगी।