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12 January 2017

देश का विकास यहीं से शुरू होता है........

BSF के जवान के घटिया खाना परोसे जाने का वीडियो आने के बाद मुझे पूरा यकीन था कि अब इस तरह के और वीडियो भी आयेंगे..........अब CRPF के एक कांस्टेबल ने समस्याओं की शिकायत की है। आगे और भी आयेंगे और आने भी चाहियें। लेकिन अब क्यों, इसका कारण है ....... जवानों के मन में, जनता के मन में, लोगों के मन में एक आशा..........एक भरोसा पैदा हुआ है कि नरेन्द्र मोदी शायद कुछ कर सकते हैं। वो नोटिस लेते हैं....... ये सब समस्यायें अब पैदा नहीं हुई।
जन-मन में ऐसा भरोसा होना आसान नहीं होता और बहुत मुश्किल है ऐसे भरोसे को बनाये रखना। नेहरू पर था......इन्दिरा पर हुआ.......अटल पर हुआ और उसके बाद सब बिखरता गया.....पहले दिन भरोसा करते..वोट पडते ही टूट जाता। केजरीवाल पर भरोसा किया था......खूब भरोसा किया। लेकिन कितने दिन....रहा।
नेता कुछ करे कुछ करके दिखाये तभी बनता है ऐसा भरोसा.......ऐसी ही एक उम्मीद मैं भी पाले बैठा हूं।

मैं भी सोच रहा हूं मोदी के लिये एक सेल्फ़ी वीडियो मैं भी डाल दूं......भई भरोसा तो हमें भी है कि नोटिस लेंगे। भारत विकासशील देश है....मतलब.....कुछ ना कुछ विकास तो होता ही रहा है......हो रहा है और होता रहेगा। लेकिन विकसित कब होंगे....और विकसित होने के लिये विकास की गति बढानी होगी और गति कैसे बढे......जिस देश में आज भी 50km जाने के लिये तीन घंटे लगते हैं। देश के किसी दूर-दराज के इलाके की बात नहीं कर रहा हूं....वहां तो पता नहीं क्या होता होगा.....राजधानी दिल्ली के आसपास और NCR का जिक्र है। इस देश का विकास सम्भव नहीं है जबतक सडकों और रेलवे का सुधार ना हो। सबसे बडी बात रेलों का सुधार चाहिए। 
ट्रेन समय पर चलें बस इतना सा सुधार हो जाये तो बहुत बडा फर्क आयेगा, कैसे? तो सुन लो........इस देश में लगभग ढाई करोड..... हां जी, दो करोड पचास लाख (2,50,000,00) लोग प्रतिदिन रेल में सफ़र करते हैं। इनमें लगभग एक करोड लोग दैनिक यात्री भी होते हैं......जो अपने व्यापार धंधे के लिये, नौकरी के लिये, रोजी-रोटी के लिये, मेहनत-मजदूरी के लिये ट्रेन में आते-जाते हैं। उनकी कितनी एनर्जी/ऊर्जा जिसका उपयोग उत्पादन/रचनात्मकता/संवृद्धि (Development/Growth/Produce/Creativity) में होना चाहिये, वो ट्रेन में या स्टेशन पर देरी से आने वाली ट्रेनों का इंतजार करते, झल्लाते निकल जाता है।


मुझे घर से केवल 50km दूर दिल्ली आने के लिये तीन घंटे लग जाते हैं......जबकि ट्रेन की समयदूरी रेलवे के अनुसार एक घंटा है। ट्रेन देरी से आती हैं.......या समय से आती हैं तो पहुंचते-पहुंचते देर कर देती हैं.......... सर्दी के मौसम में तो अवश्य.....छ: घंटे आने और जाने में लगते हैं, इसका मतलब है गणित की भाषा में जिन्दगी का एक चौथाई (1/4) हिस्सा ट्रेन में और ट्रेन के इंतजार में बर्बाद हो जाना।  ;-) :-) :D
सुबह-सुबह की एनर्जी में जो कार्य कोई भी दो घंटे में कर सकता है, वही कार्य करने में उसी आदमी को 5 से 6 घंटे लग जाते हैं। ढाई करोड लोग एक घंटा भी देर से अपने गंतव्य पर पहुंचते हैं तो देश की ढाई करोड घंटो की उत्पादकता/रचनात्मकता बाधित होती है.....समझे कि नहीं? 

तेईस साल से दैनिक रेलयात्री होने के नाते एक अनुभव ये है कि लालू जब रेलमंत्री बने थे तो साफ़-सफ़ाई और रेलों की नियमितता में सुधार देखा था। सर्दियों की धुंध और कोहरे भरी सुबहें भी ज्यादतर रेल समय से या बहुत कम देरी किये आती-जाती थी। मत चलाओ नई ट्रेन, मत दो और ज्यादा सुविधायें........जो चल रही हैं उन्हें ही ठीक रख लो..........सबसे पहले ट्रेनों के आवागमन को समयानुसार निश्चित कर दो। देश का विकास यहीं से शुरू होता है........ 
रेल मंत्रालय इस बार कुछ ऐसा करो कि ट्रेन समय पर चलें और समय पर पहुंचे। मालगाडियों का जिक्र नहीं किया है .......नुकसान तो उनकी देरी से भी है।

03 June 2011

कोयले का इंजन और आरक्षण आंदोलन की याद

आठवीं कक्षा का परिणाम आने से पहले ही सोच लिया था कि नौवीं में दाखिला रोहतक के वैश्य स्कूल में लेना है। अन्दर ही अन्दर सोच-सोच कर खुश हुआ करता था कि ट्रेन से रोहतक शहर में जाकर पढाई करुंगा। आस-पडोस के कितने बच्चे रोहतक पढते हैं, कितना मजा करते हैं। सब अपने स्कूल की, ट्रेन-बस के सफर की बातें बताते थे तो अपने अन्दर एक हीनता महसूस होती थी। आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद पापा को मेरी जिद के आगे झुकना पडा और मुझे रोहतक के वैश्य पब्लिक स्कूल में दाखिल करवाने ले गये। वहां जाकर मेरी खुशी मेरे चेहरे से झलक रही थी और पापा के चेहरे से मजबूरी और बेबसी स्कूल की फीस और अन्य खर्चा देखकर। 

एडमिशन फार्म आदि भरने के बाद फीस भरने से पहले मैनें कहा कि पहले मैं नौवीं कक्षा में जाकर अपने दोस्तों से मिलना चाहता हूँ कि किस सेक्शन में हैं। मैं भी उसी सेक्शन में दाखिला कराऊंगा। वहां सांपला से आने वाले बच्चों का नाम बताने पर एक भी सांपला से आने वाला छात्र नहीं था। तभी किसी ने बताया कि बराबर वाली इमारत वैश्य हाई स्कूल है, शायद सांपला के छात्र उस विद्यालय में हों। हम तुरन्त बाहर निकले और वैश्य हाई स्कूल में दाखिला लिया। मेरे सभी दोस्त 'सी' सेक्शन में थे तो मेरा दाखिला भी 'सी' सेक्शन में करवाया गया। नौवीं कक्षा के 'सी' सेक्शन में जगह ना होते हुये भी 'सी' सेक्शन में दाखिला दिलाने में मदद की मेरे कक्षाध्यापक श्री प्रेमचन्द गुप्ता (P.C. Gupta) जी ने, जो मेरे पापा के जानने वाले निकले। असल में श्री पी सी गुप्ता जी के मामाजी हमारे पडोसी हैं और पापा जी से उनकी मित्रता सांपला में अपने मामा जी के घर आने-जाने से हुई थी। श्री पी सी गुप्ता जी की कक्षा में पढते हुये इस बात का खूब फायदा उठाया मैनें।  सुबह 7:30 बजे से 1:50 बजे तक कक्षायें लगती थी, पर 12:20 बजे के बाद रोहतक से सांपला आने वाली गाडी शाम 3:50 पर ही थी। जब भी जल्दी (12:20 वाली रेल से) घर जाने का मन होता उनसे ही छुट्टी लेता था।

गूगल से साभार
कुछ ही दिनों में रोहतक जाकर पढने की खुशियां ठंडी होने लगी थी। जब सुबह 5:00 बजे उठकर तैयार होना होता था और 6:00 बजे की ट्रेन पकडनी होती थी। वैसे तो 1991 में ज्यादातर रेलों में डीजल से चलने वाले इंजन ही थे पर इस पैसेंजर में कोयले वाला इंजन था।  इस ट्रेन की खिडकियां भी लकडी की होती थी। आमतौर पर रेल में ज्यादा यात्री नहीं होते थे और हमें खिडकी वाली सीट मिल जाती थी, लेकिन इंजन से कोयले के बहुत छोटे-छोटे कण और राख उड-उडकर खिडकी से अन्दर आते थे और हमारे कपडों पर गिरते थे। कभी-कभी तो कोई कण आँख में भी गिर जाता था, लेकिन खिडकी पर बैठ कर सुबह की ठंडी हवा खाने का मोह और लहलहाते खेत और खेतों के अन्दर रोज (नीलगाय) के झुंड देखना मुझे अच्छा लगता था।  तो हम सांपला के 10-12 छात्र 3:45 बजे तक स्कूल में ही रहते थे। दो बार लंच करते, अपना होमवर्क निपटाते, खेलते-कूदते, लडाई-झगडा करते, ब्लैक-बोर्ड पर चित्रकारी करते रहते। एक अलमारी हमें स्कूल में हमारा सामान रखने के लिये दे दी गई, जिसमें हम अपना होमवर्क निपटा कर बस्ता और किताबें भी वहीं रख देते थे।

कुछ सम्पन्न घरों के छात्रों ने रेल और बस दोनों पास (मासिक टिकट) बनवा रखे थे। कभी-कभी उनके साथ मैं भी बस में आने लगा। टिकट के पैसे तो मेरे पास होते ही नहीं थे और कंडक्टर भी कुछ नहीं पूछते थे। एक बार सांपला आने से 5-6 किलोमीटर पहले चैकिंग शुरु हुई। टिकट चैकर्स का 3-4 लोगों का स्टाफ टिकट चैक कर रहा था, मुझे पसीना आने लगा। एक मित्र ने अपना पास चैक करवा कर मुझे पकडाना चाहा कि यही दिखा देना, लेकिन मैं समझ ही नहीं पाया और टिकट निरिक्षक मेरे पास आ गये। मैनें कहा कि मेरे पास टिकट भी नहीं है और पैसे भी नहीं है तो उन्होंने मुझे बस से वहीं उतार दिया। तभी मेरे 5-6 मित्र (जो सभी मासिक टिकट धारक थे) भी मेरे साथ ही वहीं पर उतर गये। कहा कि तू इतनी दूर से अकेला कैसे आयेगा, हम भी तेरे साथ ही चलेंगे और उसदिन हम सब 5-6 किलोमीटर पैदल चलकर ही घर पहुँचे। एक बार और ऐसे ही 10-12 किलोमीटर पैदल चलना पडा था, जब वी पी सिंह प्रधानमंत्री थे और आरक्षण आंदोलन की आग फैली थी। रोहतक और सांपला के बीच में तीन स्टेशन हैं, अस्थल बोहर, खरावड और ईस्माइला हरियाणा। रोहतक से 3:30 वाली रेल से आते वक्त खरावड में उपद्रवियों ने रेल को रोक दिया। इंजन में आग लगा दी गई और पटरियां उखाड दी गई तो हम सांपला तक पैदल ही आये थे। 

03 November 2010

अब सुरक्षा की क्या जरुरत है

image नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के अजमेरी गेट वाले प्रवेशद्वार पर कॉमनवेल्थ गेम्स शुरु होने से महिना भर पहले सामान एक्सरे जाँच करने वाली मशीन रखी गयी थी। अब कॉमनवेल्थ गेम्स समाप्त हो चुके हैं। विदेशी दर्शक, सैलानी, खिलाडी और पर्यटक भी अपने-अपने घर जा चुके हैं। अब सुरक्षातंत्र को भी आराम मिल गया है। 01 नवम्बर को देखा तो नईदिल्ली के अजमेरी गेट की तरफ वाले प्रवेशद्वार पर पिछले महिने की तरह किसी जाँच आदि से नहीं गुजरना पडा। सामान एक्सरे मशीन भी हटा दी गई है। शायद किराये पर थी, और कॉन्ट्रेक्ट पूरा हो गया होगा।

20 May 2010

मैनें कोई पाप नहीं किये हैं कि लोगों को पानी पिलाकर पुण्य कमाता फिरूं

मेरे कस्बे सांपला के रेलवे स्टेशन से लगता हुआ कुंआ होता था (अब सूख चुका है)। दिल्ली से हिसार तक की रेल सवारियां इसी पर पानी पीती थी। रेल गाडियों को भी यहां अपेक्षाकृत ज्यादा देर तक इसी कारण से रोक कर रखा जाता था। हम छोटे-छोटे 25-30 बच्चों का समूह हर रोज शाम को अपने घरों से बाल्टियां और डिब्बे लेकर निकलता था और आने-जाने वाली रेलों के यात्रियों को पानी पिलाता था। हम आवाज भी लगाते थे जल ठंडे - जल ठंडे
लेकिन अब तो मेरे पास ना समय है और ना भावना
समय का तो बहाना है जी, असल बात है कि भाव नही है। अब तो एक बोतल पानी सुबह शाम अपने बैग में लेकर सिरसा एक्सप्रैस में चढता हूं। धीरे-धीरे और चुपके से अकेला ही पीता हूं। ध्यान इस तरफ रहता है कि कोई कह ना दे - "भईया थोडा पानी मैं भी पी सकता हूं"। और यह ना सुनना पडे इसलिये ज्यादातर उस बोगी में बैठना चाहता हूं, जिसमें कोई मुझे जानने वाला दैनिक यात्री ना मिले।
फिर भी कोई ना कोई कह ही देता है और मैं मना कर देता हूं कि भाई पानी खत्म हो गया है या पानी नहीं है। और थोडी देर बाद खुद पीता हूं और खुद ही खुद की नजरों में लज्जित/शर्मिन्दा होता रहता हूं। और दूसरों की नजरों में बेशर्म।

कई बार मेरे साथ यह हुआ कि मैं स्टेशन पर पहुंचा हूं और किसी जानने वाले ने कहा - भाई थोडा पानी देना, मैनें उसे बोतल निकाल कर दे दी। बंदे ने हाथ मुंह धोया (रोकते-रोकते भी) और पानी पिया, खाली बोतल वापिस और मेरा मुंह देखने लायक(अरे भाई अभी तो स्टेशन पर ही खडे हो, नल पर पानी पी लो)
और कई बार ऐसा हुआ कि किसी अनजान ने मुझे पानी पीते देखकर बोतल मांग ली। मैनें अच्छा बनने के चक्कर में बोतल उसे पकडा दी तो उसने पहले पेट भर पिया, जो बचा उसे अपने दोस्त जिसे प्यास भी नही लगी है, उसे पिला दिया। खाली बोतल पकडे मैं खुद को कोस रहा हूं कि मैनें उसे बोतल दी ही क्यों।

भाई मैं पानी ढोकर अपने लिये लाता हूं, दो घंटे का सफर है मेरा और मुझे ही प्यासा मरना पडता है। मुझे नहीं करना यह धर्म और पुण्य का काम, हम तो नरक में जाना ही पसन्द करेंगें।
कुछ दैनिक यात्री तो ऐसे होते हैं कि उनको एक दिन पानी पिला दिया तो प्रतिदिन मेरा चेहरा देखते ही पानी मांगेंगें। भईया जब आपको इतनी प्यास लगती है तो खुद की पानी की बोतल लेकर आया करो। कहते हैं आदत नहीं है, बोझा लगता है। 

वैसे कुछ अच्छे लोग भी रेल में आते हैं जो दस-दस बोतलें पानी ले कर आते हैं और सबको पूछ-पू्छकर और आवाज लगाकर पानी देते हैं। उनको मेरा प्रणाम

06 March 2010

एक-आध बोगी ही बढा दी होती


इस बार रेलमंत्री ने 117 रेलों की बढोतरी की है जी देश में। समय पर आने-जाने, सुविधा और सुरक्षा बढाने के बजाय हर साल कुछ रेल बढा दी जाती हैं। लम्बी दूरी की रेलों की पैन्ट्री (रसोई) में  खाना बनाने के लिये शौचालय और सफाई के लिये प्रयोग होने वाला पानी उपयोग किया जाता है। रेलों की संख्यां बढने से बडे स्टेशनों पर रेल को प्लेटफार्म खाली ना होने के वजह से आऊटर पर रोका जाता है। नतीजा ट्रेन लेट, फिर उसके पीछे आने वाली ट्रेन लेट। रेलवे फाटक भी बार-बार बन्द करना पडता है, तो सडकों पर भी जाम की स्थिति बनी रहती है।
image
  
इन बढी हुई ज्यादातर रेलों में, पुरानी रेलों से बोगियां (डिब्बे) काट-काटकर लगा दिये जाते हैं।
सिरसा एक्सप्रेस में पहले 21 से 23 बोगियां होती थी अब 17 हैं। 5 बोगी कुर्सीयान हैं यानि उनमें ज्यादा से ज्यादा 200 यात्री ही घुस पाते हैं। सबसे आगे और सबसे पीछे वाले डिब्बों में आधा-आधा लगेज ब्रेक यानि माल डिब्बा होता है। उनमें भी बहुत से यात्री सफर करते हैं। लगेज ब्रेक में यात्रा करने पर मासिक यात्रा टिकट या दैनिक यात्रा टिकट होने पर भी फर्स्ट क्लास का बगैर टिकट चार्ज (जुर्माना) भरना पडता है।
इससे बढिया तो ट्रेनों में एक-आध डिब्बा ही बढा दिया जाता, यहां तो उल्टा डिब्बे कम किये जा रहे हैं।

05 March 2010

कभी देखे या रखे हैं पंखें पर चप्पल-जूते

सिरसा एक्सप्रेस में लगभग सभी बोगियों में पंखों पर चप्पल-जूते रखे हुये दिख जायेंगें।
क्यों ?
From अन्तर सोहिल = Inner Beautiful
क्योंकि सामान रखने की जगह पर लोग बैठते हैं, अगर ये लोग जूते पहने बैठेंगें तो नीचे वाले लोगों के सिरों पर मिट्टी गिरेगी।
नीचे क्यों नहीं निकालते?
इसलिये कि नीचे निकाले हुये जूते या तो जल्दबाजी में बदली हो जाते हैं, या गुम हो जाते हैं। (ड्राईवर की साईड में निकाला हुआ जूता गार्ड की साईड वाले शौचालय के पास तक पहुंच जाता है।)
सिरसा एक्सप्रैस की एक सामान्य बोगी में 90 सीटिंग होती है, मगर इनमें बैठते हैं 250 से 300 यात्री।
कैसे ?
आईये बताता हूं -
एक बोगी में होते हैं 9 कूपे या डिपार्टमेंट
एक कूपे में 4+4+1+1 = 10 सीट
4 जनों की सीट पर बैठते हैं 7 लोग और 1 वाली पर 3
From अन्तर सोहिल = Inner Beautiful
और 4+4 के ऊपर बर्थ  पर 8 से 10 लोग बैठते हैं(नहीं यह बर्थ नही होती सामान रखने के लिये टांड होती है जी, इन्हीं के जूते चप्पल पंखों पर रखे होते हैं)कितने हो गये जी 28X9 = 252
अब जो लोग आने-जाने के रास्ते यानि गैलरी में और दरवाजे पर लटके और शौचालय में खडे-खडे यात्रा करते हैं, उनकी गिनती भी कम से कम 50 तो हो ही जाती है।

17 November 2009

वो विक्षिप्त नही है

ट्रेन में चढते ही विकास ने थोडा सरक कर बैठने के लिये जगह दे दी। सीट के कोने पर मैं बैठ तो क्या गया बस किसी तरह अटक गया। तभी विकास ने कहा "अपने साथ वाले का ख्याल रखना, यह अपंग है"।

मैनें उस तरफ देखा तो एक नवयुवक (सुभाष) चेहरे-मोहरे से आकर्षक, ब्राण्डेड जींस और टीशर्ट में बैठा हुआ था। गले में मोटे-मोटे मोतियों की माला, एक सोने की चैन, शिवजी की तस्वीर वाला लाकेट और रुद्राक्ष की माला पहने हुये था। एक हाथ पर सुन्दर कलाई घडी और दूसरे हाथ पर बहुत बडा सारा लाल धागा बंधा था। मस्तक पर तिलक और पैरों में अच्छे स्पोर्ट्स शूज थे। हाथ में पकडे मोबाईल पर प्यारे-प्यारे भजन सुन रहा था।
(भजन पूरे सफर जो लगभग डेढ घंटे का था, बजते रहे थे)

मैनें सुभाष से कहा - मेरे यहां बैठने से आपको कोई परेशानी तो नहीं हो रही है।
उसने कहा - नहीं
फिर मैनें अपने बैग से एक किताब निकाली।
(मैं सफर के दौरान समय काटने के लिये पढना पसंद करता हूं)

तभी सुभाष ने भी अपने बैग से किताबें निकाली।
भारत का स्वाधीनता संग्राम, सुभाषचन्द्र बोस की जीवनी और एक किताब स्वेट मार्डेन की आत्मविश्वास के विषय पर और एक वैदिक धर्म के बारे में ।
इनके अलावा बहुत सी अच्छी-अच्छी किताबें थी उसके पास

मैनें उससे उसका नाम पूछा तो उसने अपना नाम सुभाषचन्द्र बोस बताया। एक सहयात्री ने व्यंग्य से मुंह बिचकाया। लेकिन मुझे विश्वास हो गया कि इसका नाम सुभाष ही है। एक सहयात्री ने सुभाष से पूछा कि "आपको कब से ऐसा है"।
उसने कहा - "पता नही"।
मुझे अब तक सुभाष में इतना असामान्य सा कुछ नही दिखा जिसके कारण उसे अपंग कहा जाये। सिवाय एक बात के कि उसका उच्चारण थोडा अस्पष्ट था और लिखते वक्त अंगुलियां कंप रही थी।
मैनें कहा - "क्या हुआ है आपको, एकदम ठीक तो हो"।
सुभाष - पता नही कोई कहता है मैं विक्षिप्त हूं और कोई कहता है कि बिल्कुल ठीक हूं।
उसके बाद मेरी और सुभाष की ढेरों बातें हुई। घर-परिवार, काम-धंधे और उनकी रुचि के बारे में।
मुझे सुभाष सीधा-सादा और धार्मिक प्रवृति का आदमी लगा। लेकिन उसकी बातों में काफी समझदारी थी।
चलते वक्त उसने मुझे एक छोटी सी पत्रिका (पर्यावरण प्रदूषण) भी भेंट की है। इस किताब में से कुछ बातें आपको अगली चिट्ठियों में लिखूंगा।

किसी को जाने बिना लोग क्यों उस के बारे में अपनी राय बना लेते हैं?

12 November 2009

सिरसा एक्सप्रेस, एक रोता बच्चा,और बदलती विचारधारा

रेलगाडियों में कितनी भीड-भाड होती है, खासकर उन गाडियों में जो सुबह किसी महानगर को जाती हैं और शाम को वापिस आती हैं। ऐसी ही एक गाडी है सिरसा एक्सप्रैस जिससे मुझे रोजाना सफर करना होता है। सिरसा से नईदिल्ली (समय 9:30) की तरफ सुबह आते हुये यह गाडी 4086 डाऊन और शाम नईदिल्ली (समय 6:20) से सिरसा जाते हुये 4085 अप होती है। इन गाडियों में ज्यादतर दैनिक यात्री ही होते हैं जो सुबह-सवेरे अपने व्यव्साय, नौकरी, दुकान के लिये सुबह निकलते हैं और शाम को वापिस लौटते हैं। इन गाडियों में आरक्षण नही होता है। चार लोगों की जगह पर 7 या 8 और एक जन की जगह पर 2 या 3 लोगों को बैठना पडता है। ऊपर वाली बर्थ जो सामान रखने के लिये बनाई गई है उस पर भी 4-5 लोग बैठे रहते हैं। यहां तक कि शौचालय के अन्दर और बाहर भी लोग खचाखच होते हैं और दरवाजों पर भी लटके रहते हैं।

दैनिक यात्री तो एडजस्ट कर लेते हैं मगर जो यात्री कभी-कभार ही रेल में सफर करते हैं, उन्हें तो बहुत परेशानी होती है। आये दिन किसी ना किसी की किसी ना किसी से झडप होना आम बात है।

एक मां सीट के एक कोने पर आने-जाने वाले रास्ते की तरफ बैठी है, (बल्कि फंसी हुई है) गोद में 8-9 महिने का बच्चा है।
विचारधारा - गरीब है, शायद अकेली है, शायद विक्षिप्त है, पता नही कहां से आ गई होगी, क्या मालूम कहां जाना है, क्या पता भिखारिन हो।
मां को नींद आने लगी है, ऊंघते ही गोद से बच्चा फिसलने लगता है, संभालती है।
साथ बैठे यात्री का दबाव भी महसूस होता है उसको थोडा हटने के लिये कहती है।
गाडी किसी स्टेशन के आऊटर पर रुकी हुई है। खचाखच भीड के कारण गर्मी बढ गई है।
बच्चा रोने लगता है, चुप कराने की कोशिश।
बार-बार बच्चा रोते-रोते गोद से फिसल कर नीचे फर्श पर चला जाता है।
उठाती है, संभालती है, गुस्सा करती है, ऊंघने लगती है ।
मगर बच्चा चुप होने का नाम नही ले रहा है।
बच्चे को छाती से लगाती है, मगर वह दूध नही पीना चाहता।
(विचारधारा - खुद खाली पेट है, दूध कहां से आयेगा)
दो-तीन झापड लगाती है। बच्चा और तेजी से रोने लगता है।
मेरा दिल (शायद दूसरे लोगों का भी) पसीजने लगता है।
बच्चे से बात (बहलाने) करने की कोशिश करता हूं।
मां से बच्चे की टोपी उतारने के लिये कहता हूं।
(विचारधारा - शायद बच्चे को गर्मी लग रही है)
(सर्दियों का मौसम शुरू होने लगा है, रात का मौसम और ट्रेन में हवा लगती है, इसलिये बच्चे को ढेर सारे गर्म कपडे पहनाये हुए हैं)
मां ऊंघते हुए ही ऊनी टोपी को खींच कर उतार देती है।
बच्चा रो रहा है, बच्चे को पानी पिलाने के लिये कहता हूं। मां कोई जवाब नही देती।
(विचारधारा - (शायद बच्चे के पेट में दर्द है)
मां बच्चे का स्वेटर उतारती है।
ट्रेन चल पडी है। बच्चा अब भी रो रहा है।
मैं - "अगर आप के पास पानी नही है तो मैं देता हूं"
कोई जवाब नही।
मां ऊपर वाली बर्थ के एक कोने की तरफ देखती है।
मैं भी देखता हूं, एक आदमी दो बच्चों को गोद में चिपकाये अधलेटा सा सो रहा है।
उसके साथ बैठे दूसरे लोगों से उस आदमी को जगाने के लिये कहता हूं।
बच्चे का पिता गुस्सा करते हुये और मां को तेज-तेज डांटते हुये नीचे आता है।
(विचारधारा - बुरा आदमी, क्या इसे बच्चे का रोना सुनाई नही दे रहा है)
आस-पास बैठे लोग - इसे (मां को) क्यों गुस्सा कर रहे हो
बच्चे का पिता - बाऊजी तीन दिन से सफर के कारण सोये नही हैं,
अपनी नींद पूरी करें या इनकी
लोग - पहले बच्चों की नींद पूरी कर दो तो तुम भी सो पाओगे
पिता अपने सामान में से पानी की बोतल निकाल कर बच्चे को पानी पिलाता है
पिता बच्चे को गोद में लेता है और चुप कराने की कोशिश
(विचारधारा - अच्छा आदमी, वह आदमी बहुत सुन्दर है)
बच्चा अब भी रो रहा है, बच्चे का ऊपर का एक कपडा और उतारा गया, एक पैंट उतारी गई
बदबू सी आने लगी है, दूसरी पायजामी हटा कर देखो
अब पता लग गया है, बच्चे के इतना रोने का कारण
मां और पिता बच्चे को धो कर लाते हैं।
बच्चा चुप है। पिता, बिस्कुट निकाल कर अभिषेक (यही नाम है बच्चे का) को देता है।
पिता अपनी जगह पर चला गया है।
मां सो गयी है, अभिषेक मां की गोद में बैठा मजे से बिस्कुट खा रहा है और हमारी तरफ देख कर मुस्कुरा रहा है, कितना प्यारा बच्चा है।

06 March 2009

भिखमंगे, स्टेशन और सुरक्षातंत्र

12022009 ये तस्वीरें है देश की राजधानी दिल्ली के नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर 1 पर भीख मांगते हुए मुस्टन्डों की।
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन का प्लेटफार्म नंबर 1 वाकई में सबसे खूबसूरत प्लेटफार्म है। यहां साफ-सफाई और रोशनी का पूरा ध्यान  रखा जाता है। मुख्य अन्दर-बाहर दरवाजा (Enter-Exit Gate), सभी श्रेणियों के प्रतीक्षालय (Waiting Rooms), भोजनालय (Canteen) और पूछताछ केन्द्र (Enquiry)  भी इसी प्लेटफार्म पर हैं।                                                          लेकिन इन भिखमंगों को हटाने वाला वहां कोई नही है। सफाई कर्मचारी, सुरक्षा कर्मचारी, RPF के जवान और टिकट पर्यवेक्षक आदि सभी इन भिखारियों को हटाने की बजाय इग्नोर कर के निकल जाते हैं।120220092800329
समय की कमी के कारण केवल दो भिखमंगों की तस्वीरें ही ले पाया, इस प्लेटफार्म पर तो दसियों भिखारी दिखाई देते हैं।
 
 
 
 
 
 
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03 December 2008

छोरा फौजी बन गया

कहते हैं एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है। राजनीति का तो पूरा का पूरा तालाब ही दलदल है जिसमें सडांध के अलावा कुछ भी नही है। हमारे सुरक्षातंत्र में भी कुछ गंदे लोग हैं ही जिनके कारण बहादुर देशभक्तों को शहीद होना पडता है और आम जनता को अपनी जान गंवानी पडती है।

अभी कुछ दिनों पहले मैं दिल्ली से रोहतक जाने वाली ट्रेन में सफर कर रहा था। मेरे पास वाली सीट पर दो बुजुर्ग बैठे आपस में बातें कर रहे थे। एक-दूसरे का हालचाल जानने के बाद वे अपने-अपने बच्चों के बारे में और उनके काम-धंधों की चर्चा करने लगे तो मेरा ध्यान उनकी बातों की तरफ चला गया। एक ताऊ बता रहा था कि उसने अपने छोटे बेटे को फौज में भरती कराने के लिये दो लाख रुपये खर्चा किया है। वैसे तो मैं एक हद तक चुप रहने वाला बंदा हूं और दूसरे लोगों की बातों को सुनने के अलावा कोई टिप्पणी नही करता पर अब मुझसे नही रहा गया तो मैं बोल पडा कि अब आपका बेटा आपके दो लाख मय ब्याज के वापिस पाने के लिये कितने लोगों को सीमा पार करवायेगा। इसी बात से उनका पारा चढ गया और मेरी पिटाई होने ही वाली थी कि मेरा स्टेशन आ गया और मैं अपने सवाल पर खुद ही विचार करता हुआ ट्रेन से उतर गया।

एक और खबर सुनी थी कि अ ब स ने अपने बेटे को ए0 एस0 आई0 लगवाने के लिए 14 लाख रुपये दिये हैं। अब यह ए0 एस0 आई0 क्या केवल तनख्वाह से गुजारा कर पायेगा या अपराधियों का साथ देकर अपने पिता के इस इनवेस्टमंट को भुनायेगा।

हर राज्य की सीमा पर चुंगी कर के लिये नाका होता है लेकिन हजारों ट्रक रोज बिना बिल पर्चों के एक जगह से दूसरी जगह माल पंहुचाते हैं। बिना जरूरी कागजातों के ये ट्रक कैसे एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवेश करते हैं ? क्योंकि उन सबकी सैटिंग है यानि मंथली फिक्स कर रखी है, या उन्हें पता है कि कहां पर किस का कितना रेट है।

अब समुद्र के रास्ते D कंपनी या किसी और के कितने जहाज, स्टीमर और बोट डीजल या अन्य सामान लेकर भारत में आते हैं या स्मगलिंग करते हैं, वो सब भी तो किसी ना किसी को कमाई तो दे ही रहे होंगें ? किसी ना किसी के पिताजी का रुपया तो बढकर वापिस आ ही रहा होगा।

जाहिर है जिसने भी इनवेस्ट किया है वो तो कमाने के लिये ही तो किया है। अब वह कमाई चाहे डीजल वाले दें या बारूद वाले उन्होंने तो बोट को रास्ता देना है। आखिर ऊपर बैठे नेताओं, अफसरों ने तो अपना इनवेस्टमंट नौकरी देते वक्त एक ही झटके में निकाल लिया था।

आतंकवादियों को अपने घर के अंदर घुसने देने और इन घटनाओं का जिम्मेवार कौन है ? केवल हम, जो अपने बच्चों को सरकारी नौकरियों में और ऊंचे पदों पर देखना चाहते हैं। जो ऐसे नेताओं (कैसे सब जानते हैं) को सरकार बनाने के लिये चुनते हैं।