रेलगाडियों में कितनी भीड-भाड होती है, खासकर उन गाडियों में जो सुबह किसी महानगर को जाती हैं और शाम को वापिस आती हैं। ऐसी ही एक गाडी है सिरसा एक्सप्रैस जिससे मुझे रोजाना सफर करना होता है। सिरसा से नईदिल्ली (समय 9:30) की तरफ सुबह आते हुये यह गाडी 4086 डाऊन और शाम नईदिल्ली (समय 6:20) से सिरसा जाते हुये 4085 अप होती है। इन गाडियों में ज्यादतर दैनिक यात्री ही होते हैं जो सुबह-सवेरे अपने व्यव्साय, नौकरी, दुकान के लिये सुबह निकलते हैं और शाम को वापिस लौटते हैं। इन गाडियों में आरक्षण नही होता है। चार लोगों की जगह पर 7 या 8 और एक जन की जगह पर 2 या 3 लोगों को बैठना पडता है। ऊपर वाली बर्थ जो सामान रखने के लिये बनाई गई है उस पर भी 4-5 लोग बैठे रहते हैं। यहां तक कि शौचालय के अन्दर और बाहर भी लोग खचाखच होते हैं और दरवाजों पर भी लटके रहते हैं।
दैनिक यात्री तो एडजस्ट कर लेते हैं मगर जो यात्री कभी-कभार ही रेल में सफर करते हैं, उन्हें तो बहुत परेशानी होती है। आये दिन किसी ना किसी की किसी ना किसी से झडप होना आम बात है।
एक मां सीट के एक कोने पर आने-जाने वाले रास्ते की तरफ बैठी है, (बल्कि फंसी हुई है) गोद में 8-9 महिने का बच्चा है।
विचारधारा - गरीब है, शायद अकेली है, शायद विक्षिप्त है, पता नही कहां से आ गई होगी, क्या मालूम कहां जाना है, क्या पता भिखारिन हो।
मां को नींद आने लगी है, ऊंघते ही गोद से बच्चा फिसलने लगता है, संभालती है।
साथ बैठे यात्री का दबाव भी महसूस होता है उसको थोडा हटने के लिये कहती है।
गाडी किसी स्टेशन के आऊटर पर रुकी हुई है। खचाखच भीड के कारण गर्मी बढ गई है।
बच्चा रोने लगता है, चुप कराने की कोशिश।
बार-बार बच्चा रोते-रोते गोद से फिसल कर नीचे फर्श पर चला जाता है।
उठाती है, संभालती है, गुस्सा करती है, ऊंघने लगती है ।
मगर बच्चा चुप होने का नाम नही ले रहा है।
बच्चे को छाती से लगाती है, मगर वह दूध नही पीना चाहता।
(विचारधारा - खुद खाली पेट है, दूध कहां से आयेगा)
दो-तीन झापड लगाती है। बच्चा और तेजी से रोने लगता है।
मेरा दिल (शायद दूसरे लोगों का भी) पसीजने लगता है।
बच्चे से बात (बहलाने) करने की कोशिश करता हूं।
मां से बच्चे की टोपी उतारने के लिये कहता हूं।
(विचारधारा - शायद बच्चे को गर्मी लग रही है)
(सर्दियों का मौसम शुरू होने लगा है, रात का मौसम और ट्रेन में हवा लगती है, इसलिये बच्चे को ढेर सारे गर्म कपडे पहनाये हुए हैं)
मां ऊंघते हुए ही ऊनी टोपी को खींच कर उतार देती है।
बच्चा रो रहा है, बच्चे को पानी पिलाने के लिये कहता हूं। मां कोई जवाब नही देती।
(विचारधारा - (शायद बच्चे के पेट में दर्द है)
मां बच्चे का स्वेटर उतारती है।
ट्रेन चल पडी है। बच्चा अब भी रो रहा है।
मैं - "अगर आप के पास पानी नही है तो मैं देता हूं"
कोई जवाब नही।
मां ऊपर वाली बर्थ के एक कोने की तरफ देखती है।
मैं भी देखता हूं, एक आदमी दो बच्चों को गोद में चिपकाये अधलेटा सा सो रहा है।
उसके साथ बैठे दूसरे लोगों से उस आदमी को जगाने के लिये कहता हूं।
बच्चे का पिता गुस्सा करते हुये और मां को तेज-तेज डांटते हुये नीचे आता है।
(विचारधारा - बुरा आदमी, क्या इसे बच्चे का रोना सुनाई नही दे रहा है)
आस-पास बैठे लोग - इसे (मां को) क्यों गुस्सा कर रहे हो
बच्चे का पिता - बाऊजी तीन दिन से सफर के कारण सोये नही हैं,
अपनी नींद पूरी करें या इनकी
लोग - पहले बच्चों की नींद पूरी कर दो तो तुम भी सो पाओगे
पिता अपने सामान में से पानी की बोतल निकाल कर बच्चे को पानी पिलाता है
पिता बच्चे को गोद में लेता है और चुप कराने की कोशिश
(विचारधारा - अच्छा आदमी, वह आदमी बहुत सुन्दर है)
बच्चा अब भी रो रहा है, बच्चे का ऊपर का एक कपडा और उतारा गया, एक पैंट उतारी गई
बदबू सी आने लगी है, दूसरी पायजामी हटा कर देखो
अब पता लग गया है, बच्चे के इतना रोने का कारण
मां और पिता बच्चे को धो कर लाते हैं।
बच्चा चुप है। पिता, बिस्कुट निकाल कर अभिषेक (यही नाम है बच्चे का) को देता है।
पिता अपनी जगह पर चला गया है।
मां सो गयी है, अभिषेक मां की गोद में बैठा मजे से बिस्कुट खा रहा है और हमारी तरफ देख कर मुस्कुरा रहा है, कितना प्यारा बच्चा है।
ek muskaan lekar ja raha hun yahan se.. :)
ReplyDeleteअन्ततः मुस्करा उठा बच्चा। वाह, यही हिन्दुस्तान है।
ReplyDeleteकठिनाइयों के बीच भी मुस्कराने की आदत डालनी होगी। तभी तो जीवन की गाड़ी चलती रहेगी।
धन्यवाद इस प्यारी सी मुस्कान के लिये
ReplyDeleteis aap beeti ko hum tak pahuchane ka aabhar.
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाई, बेचारा पोटी कर के ओर गीला रह कर केसे खुश रहता, ओर इसी बहाने आप का समय भी निकल गया, मजे दार
ReplyDeleteधन्यवाद