29 May 2010

संगीता पुरी जी ने कहा था

23 मई 2010 को जाट धर्मशाला नांगलोई में ब्लागर बैठक में मेरी किससे क्या-2 बातें हुई, वो सब बाद में समय मिलने पर लिखूंगा। आज बस इतना ही कि आदरणीया संगीता पुरी जी ने कहा था - "28-29 को बारिश जरुर हो जायेगी।"
लो जी दिल्ली में अभी-अभी बारिश शुरू हो गई है। समय 4:30 शाम का
कल भी दिल्ली और रोहतक में आसमान साफ नही था और पूरा दिन तेज हवायें (आंधियां जैसी) चलती रही थी।
अभी तो बारिश धीमे-धीमे हो रही है।

28 May 2010

बह गया मैं गंगा में गंगा के साथ-साथ

लहरों पर सवारी और राफ्ट का
ऊपर नीचे गिरना और डगमग होना

इस समय में मन विचारशून्य हो जाता है
और आनन्द से किलकारियां ही किलकारियां
हम रामझूला से शिवपुरी तक राफ्ट (हवा भरी नाव) के साथ ही एजेन्ट की जीप में बैठकर गये। (यह वही सडक थी जिस पर पिछ्ले साल मेरा एक्सीडेंट हुआ था। उस दुर्घटना के बारे में फिर कभी।)  शिवपुरी में गंगा किनारे पेय पदार्थ और अन्य खाने का सामान बहुत महंगा मेरे बजट में है। एक शिकंजी और एक भेलपुरी की कीमत 20+20 = 40 रुपये देनी पडी। वहां हमें हेलमेट और लाईफ जैकिट दिये गये। ये पहनने के बाद गाईड द्वारा हमें कुछ सुझाव, प्रशिक्षण और नियम बताये गये।


कोडियाला से राफ्टिंग करते वक्त
एक फाल (झरना) भी रास्ते में आता हैं,
वहां राफ्ट के पलटने के 98% अवसर होते हैं
फिर हम हाथ में पैडल (गाईड ने कहा था इसे चप्पू नहीं कहना) लेकर राफ्ट में बैठ गये और गाईड जो हमारा कमांडर भी था उसके अनुदेशों का पालन करते हुए इंतजार करने लगे पहले रैपिड यानि तीव्र बहाव का।
जो आनन्द और उत्साह था उसे शब्दों में बयान करना मेरे लिये तो मुश्किल है। दो रैपिड से निकलने के बाद जहां गंगा की चौडाई बढ जाती हैं, वहां बहाव थोडा शांत सा दिखने लगा था।


रैपिड (तीव्र बहाव) अभी दूर है तो
गाईड ने कहा गैट डाऊन या गो आऊट
तो हम भी कूद गये गंगा में और
स्वतन्त्र रूप से 1-2 किमीO यूं बहने का
अनुभव बताया नही जा सकता
अचानक हमारा गाईड  (जो हमें चिल्ला-चिल्ला कर कमांड कर रहा था) जोर से चिल्लाया - गो डाऊन। हम स्तब्ध रह गये। उसने फिरसे कहा - गेट आऊट
मैनें कहा - भईये तू ही हो जा ना गेट आऊट, लेकिन फिर ख्याल आया कि अरे ये नाव से उतर  गया तो हम भी गये और ये तो तैर कर निकल भी जायेगा पर हमें कौन बचायेगा।
गाईड ने फिर से कहा - जो पानी में उतरना चाहता है, उतर सकता है। अबकी बार मैं उसकी बात समझ गया और राफ्ट से धीरे से गंगा में उतर गया और राफ्ट के चारों ओर बंधी रस्सी पकड ली।




ऐसे ही बहता हुआ मैं लक्ष्मण झूला
के नीचे से भी निकला क्योंकि
यहां हाथ पैर मारना केवल थकना है।

काश जिन्दगी भी ऐसे ही बिना हाथ पैर
मारे बह कर पार कर जाऊं।
अब ज्यादा मजा आने लगा था। धीरे-धीरे वो रस्सी भी छोड दी और बह गये गंगा में गंगा के साथ-साथ। उसके बाद हम फिर से राफ्ट में आ गये, क्योंकि आगे फिर रैपिड आने वाला था।
  
"ॠषिकेश में लक्ष्मण झूला और राम झूला नाम से दो पुल हैं। रामझूला थोडा संकरा और छोटा है, इसपर केवल पैदल यात्री ही जा सकते हैं। जबकि लक्ष्मण झूला पर टूव्हीलर भी चलते हैं।" 





इन्होंने ऊपर छलांग लगाई है और
ऐसा लग रहा है जैसे पानी पर खडे हों।
दूसरी बार छलांग लगाने में तो
मेरी चीख निकल गई थी।
थोडी देर बाद हम ब्रह्मपुरी में रुके वहां एक चट्टान है, कुछ लोग उसपर से गंगा में कूद लगा रहे थे। मैनें पहले कुछ खाया, फिर उस चट्टान पर चढ गया। लेकिन जिस चट्टान को नीचे से दूसरों को कूदते देखने पर आसान लग रहा था। वहां ऊपर पहुंच कर गंगा में झांकने पर जान ही निकल गई। मैं वहीं बैठ गया और अपनी सांसों को काबू करने लगा, जो एकबार नीचे झांकने पर ही रेल की तरह चलने लगी थी। वहां कुछ दूसरे लोग भी बैठे थे, जो मेरी तरह ही  उत्साह में चढ तो गये थे, मगर ऊंचाई से कूदने पर डर रहे थे।



Brahmpuri, 12 KM from Rishikesh
(Height 25-30Ft.)

नीचे से देखने पर इस चट्टान की
ऊंचाई कम दिखती है, लेकिन ऊपर
चढने के बाद दिल जोर से धडकने लगा
पांच मिनट बैठा रहने के बाद मैं फिर से उठा और नीचे देखा। मगर अब फिर सांसें फूल गई। इसी तरह मैं कई बार उठता और बैठ जाता। फिर एक पक्का इरादा किया और माऊंटेन ड्यू के विज्ञापन (डर के आगे जीत है) को याद करके छलांग लगा दी। बस हो गया, अरे कुछ नहीं हुआ। चलो एक बार फिर कोशिश करता हूं।  एक बार फिर से पहुंचा, इस बार ज्यादा देर नहीं लगाई, मगर इस बार डर के मारे मुंह से तेज चीख निकल गई।






लक्ष्मण झूला
इसके नीचे से भी मैं बहते हुए निकला 
 उसके बाद हम फिर से गंगा में उतर गये और बहते रहे। मुझे तैरना नहीं आता है फिर भी मैं हाथ पैर मारने लगा। लक्ष्मण झूला सामने दिख रहा था, मैनें सोचा कि  जबतक मेरी राफ्ट आयेगी, मैं यहां बैठा रहूंगा। इस चक्कर में मैं अपनी राफ्ट से काफी दूर निकल आया और किनारे तक भी नहीं पहुंच पा रहा था। मैं बिल्कुल थक चुका था, ठंड भी लगने लगी थी और डर लगने लगा था कि कहीं आगे कोई रैपिड हुआ तो। मैं बस किसी तरह से गंगा से निकलना चाहता था। तभी एक दूसरी राफ्ट पास आती दिखी। मैनें उसे इशारा किया और उन्होंने मुझे ऊपर राफ्ट में खींच लिया। थोडी देर में मेरी वाली राफ्ट भी आ गई तो मैं उसमें चला गया और हम रामझूला पहुंच गये और हमारी रिवर राफ्टिंग के अनुभव पर आनन्दित होते हुये हम वापिस हरिद्वार आ गये।

नोट : - सभी तस्वीरें गूगल से साभार ली गई हैं।

27 May 2010

गंगा में रिवर राफ्टिंग


पिछली पोस्ट में आपने एक चोर के साथ मेरी यात्रा के बारे में पढा। 21-05-10 की सुबह 6:00 बजे बस से हरिद्वार के ॠषिकुल के बस अड्डे पर उतरे।  मेन बस अड्डा जो ठीक हरिद्वार रेलवे स्टेशन के सामने है, शायद वह बंद कर रखा था। ॠषिकुल से आटो द्वारा 10-10 रुपये में आटो में बैठ कर रेलवे स्टेशन पर आये। वहां से हमने जाना था, आनन्दोत्सव आश्रम, हरिपुर कलां, हरिद्वार। हरिपुर कलां गांव हरिद्वार रेलवे स्टेशन से तकरीबन 5-6 किलोमीटर दूर ॠषिकेश रोड पर है। गायत्रीकुंज, शांतिकुंज, देवसंस्कृति विश्वविद्यालय होते हुये नीचे अन्दर की तरफ जाकर आता है यह आश्रम। 
रेलवे स्टेशन से आटो वाले वहां तक पहुंचाने के 200 रुपये मांग रहे थे। जबकि पिछली बार मैं देव संस्कृति विश्वविद्यालय तक केवल 10 रुपये में गया था। एक समस्या है कि विश्वविद्यालय से आनन्दोत्सव आश्रम तक रिक्शा या अन्य कोई साधन उपलब्ध नही हो पाता है, जबकि यहां से दूरी केवल 1-1.5 किलोमीटर रह जाती है। काफी बहसबाजी के बाद हमने 150 रुपये में आटो से जाना तय किया। 

River Rafting in Ganga
अगले दिन  22-05-10 को हम ॠषिकेश के लिये निकल गये। पिछली तीन बार की ॠषिकेश यात्रा में रिवर राफ्टिंग (इस शब्द के लिये हिन्दी आप लोग बतायें) ना कर पाने का मलाल था। हर बार किसी ना किसी कारण से रिवर राफ्टिंग का अनुभव नहीं कर पा रहा था। विश्वविद्यालय, ॠषिकेश रोड तक एक मित्र की कार से  आये और वहां से ॠषिकेश जाने वाले आटो में बैठ गये।
Ram Jhoola at Rishikesh
यहां आटो वाले से 30-30 रुपये में जाना तय हुआ। लेकिन हरिद्वार रेलवे स्टेशन से भी ॠषिकेश का किराया 25-30 रुपये ही है। ॠषिकेश से हम रामझूला तक 5-5 रुपये में गये। वहां काफी एजेन्ट हैं, जो रिवर राफ्टिंग कराते हैं।

रिवर राफ्टिंग कराने की सेवा की दर इस प्रकार है: 
ब्रह्मपुरी से रामझूला तक (12 किमी)        =   300 रुपये प्रति व्यक्ति (समय 3 घंटे लगता है)
शिवपुरी से रामझूला तक (18 किमी)       =   400 रुपये प्रति व्यक्ति (समय 4 घंटे लगता है)
मैरीन ड्राईव से रामझूला तक (27 किमी)   =   600 रुपये प्रति व्यक्ति (समय 6 घंटे लगता है)
कोडियाला से रामझूला तक (36 किमी)        = 1000 रुपये प्रति व्यक्ति (पूरा दिन लग जाता है)

Camp for Rest 
on Ganga's Bank
1200 से 1500 रुपये में कैम्पिंग और राफ्टिंग की सुविधा भी है। जिसमें स्वागत पेय, लंच और डिनर भी दिया जाता है।  रात में सोने और आराम करने के लिये बिस्तर, गंगा के किनारे बने झोपडीनुमा कैम्प  बहुत साफ-सुथरे और सुन्दर होते हैं। बोन फायर और वालीबाल जैसी सुविधा भी छोटे-छोटे रेतिले बीच पर होती है।

सभी तस्वीरें गूगल से साभार
मेरे पास कैमरा नहीं है और ना ही मुझे फोटो लेनी आती है। 

26 May 2010

हम एक चोर को साथ ले जा रहे थे

20-05-10 रात 8:00 बजे दिल्ली के ISBT पर पहुंचा ही था कि बेदू का फोन आ गया। पूछा कहां है तू, मैनें बताया कि हरिद्वार जा रहा हूं। उसने कहा इंतजार कर मैं अभी आता हूं। मैं उसका इंतजार करने लगा। करीब दो घंटे बाद बेदू और उसके साथ एक आदमी और आये। मैनें पूछा ये कौन है, बेदू ने कहा इसका नाम सोनू है, मेरे आफिस के बाहर घूमता रहता है। इसने कहा कि मुझे भी ले चलो, तो मैं ले आया। 1000-1200 रुपये ज्यादा खर्च हो जायेंगें, पर ये बेचारा भी हरिद्वार घूम आयेगा। । मैनें कुछ नहीं कहा, मगर मुझे ऐसे किसी अन्जान आदमी को अपने साथ  जाना अच्छा नहीं लग रहा था और मुझे उसके हाव-भाव भी कुछ अजीब से लग रहे थे। मैं उससे कोई बात भी नहीं करना चाहता था। (वर्ना मैं नये लोगों से मिलना बहुत पसन्द करता हूं) उसके पास एक मोबाईल फोन के अलावा कुछ नहीं था, ना कोई पैसा, ना कपडे।
खैर उत्तरप्रदेश परिवहन निगम की शताब्दी बस में मैनें तीन शायिका (स्लीपर) की टिकट ले ली। शताब्दी बस में केवल 30 यात्रियों के लिये बैठने और सोने की जगह होती है। दिल्ली से हरिद्वार का किराया है 330 रुपये प्रति यात्री। दो शायिका जो साथ-साथ थी उनपर बेदु और सोनू को छोडकर तीसरी शायिका जो किसी अन्य सहयात्री के साथ थी, मैं उसपर चला गया। बेदू ने कहा अमित तू यहां आ जा मेरे पास और सोनू को वहां भेज दे। मैनें कहा ठीक है। सोनू जाना नहीं चाहता था, मगर मैनें उसे भेज दिया और हम सो गये।
रात 2:00-2:30 बजे बस खतौली से थोडा पहले ट्रैफिक जाम की वजह से रुकी हुई थी। सोनू बार-बार मुझे हाथ लगा कर कहने लगा, भाई साहब लंबा जाम है, पेशाब वगैरा कर लीजिये। मैनें कहा-नहीं मुझे सोने दो। इस बीच सोनू कई बार बस से नीचे उतरा। थोडी देर बाद सोनू बस में अन्दर आया तो जो सहयात्री उसके साथ वाली शायिका पर था, उसने सोनू से सख्त लहजे में पूछा-मेरा फोन कहां है? सोनू ने कहा-भाई साहब किस फोन की बात कर रहे हैं आप। तभी सहयात्री ने उसकी जेब में हाथ डालकर तलाशी ली तो उन सज्जन का मोबाईल मिल गया। फोन की बैटरी और सिम निकाले हुये थे। सज्जन पूछने लगे कि बैटरी और सिम कहां है। अभी दूसरे यात्री या तो सो रहे थे, या नीचे उतर गये थे। मैं लेटा हुआ ये सब देख रहा था। मगर सोनू उल्टा उन्हें ही पूछने लगा कि किस सिम की बात कर रहे हो आप। मुझे क्या पता आपके फोन के बारे में।  मैनें तुरन्त उन सज्जन को कहा कि इसके कान के नीचे दो बजाओ, ये तब बतायेगा। मैनें बेदू को उठाया कि बेटा हम किस चोर को अपने साथ लेकर चल रहे हैं, जरा उठकर तो देखो। उसे बस से नीचे लाया गया। बैटरी तो बस के नीचे ही मिल गई, मगर सिम नहीं मिल रही थी।
बेदू ने सोनू की चमडी उधेडनी शुरू कर दी। बेदू उसे बुरी तरह से थप्पड, घूंसे मार रहा था और गालियां दे रहा था। मैनें उसे रोका और चोर को वहां से भाग जाने के लिये कहा। अब जिन बेचारे सज्जन की सिम गुम हो गई थी, उन्हें कितनी परेशानी हुई होगी, इसका तो केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।
मैं सुबह तक सोचता रहा कि अगर वो आदमी हमारे बैग, पर्स, मोबाईल चुरा लेता तो या कोई चुराई हुई वस्तु हमारे बैग में डाल देता तो?

20 May 2010

सोच और वहम का फर्क

अध्यापिका - सोच और वहम में क्या फर्क है
फत्तू चौधरी - आप बहोत सैक्सी सो, या म्हारी सोच सै और हम अभी बच्चे हैं ये आपका वहम है
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फत्तू चौधरी मोबाईल रिचार्ज करवाने गया।
फत्तू चौधरी - दस का रिचार्ज कर दे
दुकानदार - सात रुपये का टाक टाईम मिलेगा
फत्तू चौधरी - कोय बात ना, तीन रुपये की नमकीन दे दे
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फत्तू चौधरी अपनी पत्नी  से - मेरे तै ब्याह तै पहलां तेरा किसे गेलां कोये चक्कर था? तेरा कोये यार दोस्त था?
जब पत्नी ने कोई जवाब नहीं दिया तो, फत्तू चौधरी - मैं इस खामोशी का के मतबल समझूं, "हां के ना"
फत्तू की पत्नी - अबे गिनने  तो दे
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फत्तू (गर्लफ्रेण्ड से) - तू आज कोये इसी बात कह, जिसनै सुण कै खुशी भी होवै अर दुख भी
गर्लफ्रेण्ड - भईया, आई लव यू
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ट्यूशन टीचर - अबे गधे होमवर्क क्यूं नहीं करता है तू
आज के छात्र - तमीज से बात करो मास्टर, कस्टमर से ऐसे बात करते हैं क्या

मैनें कोई पाप नहीं किये हैं कि लोगों को पानी पिलाकर पुण्य कमाता फिरूं

मेरे कस्बे सांपला के रेलवे स्टेशन से लगता हुआ कुंआ होता था (अब सूख चुका है)। दिल्ली से हिसार तक की रेल सवारियां इसी पर पानी पीती थी। रेल गाडियों को भी यहां अपेक्षाकृत ज्यादा देर तक इसी कारण से रोक कर रखा जाता था। हम छोटे-छोटे 25-30 बच्चों का समूह हर रोज शाम को अपने घरों से बाल्टियां और डिब्बे लेकर निकलता था और आने-जाने वाली रेलों के यात्रियों को पानी पिलाता था। हम आवाज भी लगाते थे जल ठंडे - जल ठंडे
लेकिन अब तो मेरे पास ना समय है और ना भावना
समय का तो बहाना है जी, असल बात है कि भाव नही है। अब तो एक बोतल पानी सुबह शाम अपने बैग में लेकर सिरसा एक्सप्रैस में चढता हूं। धीरे-धीरे और चुपके से अकेला ही पीता हूं। ध्यान इस तरफ रहता है कि कोई कह ना दे - "भईया थोडा पानी मैं भी पी सकता हूं"। और यह ना सुनना पडे इसलिये ज्यादातर उस बोगी में बैठना चाहता हूं, जिसमें कोई मुझे जानने वाला दैनिक यात्री ना मिले।
फिर भी कोई ना कोई कह ही देता है और मैं मना कर देता हूं कि भाई पानी खत्म हो गया है या पानी नहीं है। और थोडी देर बाद खुद पीता हूं और खुद ही खुद की नजरों में लज्जित/शर्मिन्दा होता रहता हूं। और दूसरों की नजरों में बेशर्म।

कई बार मेरे साथ यह हुआ कि मैं स्टेशन पर पहुंचा हूं और किसी जानने वाले ने कहा - भाई थोडा पानी देना, मैनें उसे बोतल निकाल कर दे दी। बंदे ने हाथ मुंह धोया (रोकते-रोकते भी) और पानी पिया, खाली बोतल वापिस और मेरा मुंह देखने लायक(अरे भाई अभी तो स्टेशन पर ही खडे हो, नल पर पानी पी लो)
और कई बार ऐसा हुआ कि किसी अनजान ने मुझे पानी पीते देखकर बोतल मांग ली। मैनें अच्छा बनने के चक्कर में बोतल उसे पकडा दी तो उसने पहले पेट भर पिया, जो बचा उसे अपने दोस्त जिसे प्यास भी नही लगी है, उसे पिला दिया। खाली बोतल पकडे मैं खुद को कोस रहा हूं कि मैनें उसे बोतल दी ही क्यों।

भाई मैं पानी ढोकर अपने लिये लाता हूं, दो घंटे का सफर है मेरा और मुझे ही प्यासा मरना पडता है। मुझे नहीं करना यह धर्म और पुण्य का काम, हम तो नरक में जाना ही पसन्द करेंगें।
कुछ दैनिक यात्री तो ऐसे होते हैं कि उनको एक दिन पानी पिला दिया तो प्रतिदिन मेरा चेहरा देखते ही पानी मांगेंगें। भईया जब आपको इतनी प्यास लगती है तो खुद की पानी की बोतल लेकर आया करो। कहते हैं आदत नहीं है, बोझा लगता है। 

वैसे कुछ अच्छे लोग भी रेल में आते हैं जो दस-दस बोतलें पानी ले कर आते हैं और सबको पूछ-पू्छकर और आवाज लगाकर पानी देते हैं। उनको मेरा प्रणाम

19 May 2010

गुरु को मारी लात

नौकर-चाकरों को कोई गौर से देखता है भला। नौकर चाकरों को आदमी भी मानता है? तुम अपने कमरे में बैठे हो, अख़बार पढ रहे हो, नौकर आकर गुजर जाता है, तुम ध्‍यान भी देते हो? नौकर से तुमने कभी नमस्‍कार भी की है? नौकर की गिनती तुम आदमी में थोड़ी  करते हो। नौकर से कभी तुमने कहा है आओ बैठो, कि दो क्षण बातें करें।
 
यह घटना बड़ी अनूठी है। गुरू और शिष्‍य का जन्‍म एक साथ हुआ।  इधर गुरु का आविर्भाव हुआ, उधर शिष्‍य के जीवन में क्रांति हो गयी।  वह जो लात मारी थी, जीवन भर पश्‍चाताप किया, जीवन भर पैर दबाते रहे। आगे पढें

17 May 2010

हे गुमनाम, अज्ञात, अनामी तुम्हारा भी आभार

हे नामरहित प्राणी तुम कब तक अज्ञात रह पाओगे। कभी ना कभी तो पहचान लिये ही जाओगे। मेरे बडे मुझे बताते हैं कि अनाम, गुमनाम वाली टिप्पणियां बंद कर दो। उनका कहा सिर-माथे। लेकिन मेरे विचार से और तुम्हें भी तो मालूम है कि इससे होगा क्या? तुमतो फर्जी आईडी बनाकर कुछ भी नाम रखकर टिप्पणी कर सकते हो। हां टिप्पणी माडरेशन द्वारा तुम्हारे कुविचारों को दूसरों तक पहुंचने से बचाया जा सकता है।  मगर इस प्रक्रिया से हमारे बंधु और अन्य मित्र जो उत्साह से टिप्पणी करते हैं और पोस्ट के विषय पर अपने विचार बताते हैं, उनकी टिप्पणी पब्लिश होने में देरी हो जाती है। हर टिप्पणीकर्ता यही चाहता है कि उसकी टिप्पणी तुरंत दिखे, जिससे बाद में आने वाले लोगों को भी विषय के बारे में ज्यादा चर्चा हो जाये। 

तुमने तो शायद लोगों के झगडे करवाने की कसम खा रखी है। मगर तुम ज्यादा समय तक गुमनाम नही रह पाओगे। मुझे पता है कि तुम बहुत चतुर हो, तुम 16 मई 2010 को दिल्ली में बैठकर पेज विजिट करते हो और स्टेट काऊंटर उसे वडोदरा या अहमदाबाद का आई पी बताता है। अगर तुम ये नहीं हो तो….….….….….

वो हो जो 16 मई 2010 सुबह-सुबह (8:14) पर मेरा ब्लाग खोलता है और पूरे 7 घंटे ब्लागपेज पर रहता है। 6 बार रिफ्रेश/रिलोड करता है।  अगर आप यह हो तो मुझे आपके बारे में सबकुछ पता है।

बहुत चालाक आदमी हो तुम, ब्लागपेज पर आते ही टिप्पणी करने के बजाय तुमने दो घंटे से ज्यादा  इंतजार किया और टिप्पणी करने के बाद भी ब्लागपेज को बंद नहीं किया।

पूरा ब्लागजगत करे ना करे, मैं तुम्हारा भी आभार व्यक्त करता हूं, तुम्हारे ही कारण तो सैकडों पोस्ट लिखी जा चुकी हैं और हजारों लिखी जायेंगीं। सबसे ज्यादा पढी जाने वाली पोस्टें सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी देन है। ये ब्लागजगत को समृद्ध करने में तुम्हारा सहयोग सराहनीय है।

16 May 2010

ब्लाग में क्या लिखते हैं लोग

अजी वही लिखते हैं जो उनके मन में चल रहा होता है। एकदम वही, ना कम ना ज्यादा। ये सच नहीं है तो अपने अन्दर झांक कर देख लो। आपके मन में काव्य है तो ब्लाग पर कविता आ जाती है। सामाजिक समस्याओं से दुखी हैं तो समस्या को उजागर किया जाता है, कहानी रूप ले रही है तो कहानी लिखी जाती है, मौज में हैं, खुश हैं तो व्यंग्य और चुटकुले लिखे जाते हैं। मगर सच यही है कि जो आपकी मानसिकता है वही लिखा जायेगा। अब एक भिखारी है, सबने उसे देखा मगर किसी ने तो देखा और भूल गया, मगर कोई ऐसा भी है जो उसे भुला नहीं पाया है। उसके दिमाग में देर तक उसका चेहरा, फटेहाल लिबास घूमता रहा, तो वो ब्लाग में लिखेगा। किसी के मन में लडकियां, औरतें ही चल रही हैं, किसी के मन में वेद या कुरान ही हैं। तो भाई जिसके मन में जिस विषय का विचार अधिकता  से चलता है, वो उसी बारे में तो लिखता है।

बढिया है जी, बहुत अच्छा है हर विधा, हर विषय पर हिन्दी में मैटर उपलब्ध हो जायेगा। मगर कोफ्त तो जब होती है कि लोग जो युवाओं को गर्त में जाने से रोकने, देश को नयी दिशा देने, आज की पीढी का नेतृत्व करने और संस्कृति को बचाने की पोस्टें लगाते हैं, उनकी खुद की भाषा अभद्र और असभ्य होती है। उनके अन्दर कितनी संस्कृति बची है। आपकी सच्चाई खुद ही आ जाती है आपके चिट्ठे पर।  क्या उत्तेजना, क्रोध, आक्रोश में कु्छ भी रचनात्मक लिखा जा सकता है?

कोई एक सुन्दर, प्रेरक या उपयोगी पोस्ट लिखता है। अच्छा लिखते हैं तो लोग आपको ढूंढ-ढूंढकर पढेंगें। मगर ये क्या कि 6-6 सामुदायिक चिट्ठों पर वही एक ही पोस्ट प्रकाशित कर दी जाये। यानि ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत पर बस वह एक ही पोस्ट नजर आये।

मैं अभी तक एक पाठक हूं और आप ब्लागरों को पाठकों के विचार भी जानने चाहियें।

15 May 2010

क्यों ना इस विवाद के जरिये मैं भी चर्चित हो जाऊं

जब सब लोग टी आर पी बढाने में लगे हैं तो क्यों ना मैं भी बहती गंगा में हाथ धो लूं। थोडा सा घी तेल मैं भी डाल दूं इस बुझती आग में। अब तो मैं भी सीख चुका हूं अधिक से अधिक टिप्पणियां कैसे पाई जा सकती हैं। ब्लागिंग कैसे की जाती है। अब कौन मेहनत करे।  सबसे बढिया तरीका तो शीर्षक में किसी का नाम लेकर छापों। कुछ मत लिखो, फिर भी पोस्ट हिट और मैं भी हिट।

एक बात तो है कि किसी को गुरू बना लेना कितना आसान है। आपने तो पूरी जांच-पडताल करके, गुरू लायक पात्रता, योग्यता देखकर,  किसी को गुरू मान लिया। मगर कभी ये सोचा है क्या आपमें उस शख्सियत का शिष्य बनने की योग्यता, पात्रता है या नहीं। गुरू को भी कोई अधिकार है कि नहीं कि आपको अपना शिष्य स्वीकार करे या ना करें। 

खैर जब आपने उन्हें गुरू मान लिया तो क्या उनसे कुछ शिक्षा भी ग्रहण की। वो कैसे लिखते हैं, कैसे चलते हैं, कैसे बोलते हैं, कैसे उठते-बैठते हैं। उनके एक-एक शब्द में उनके ज्ञान, उनकी तपस्या, उनके अनुभव का निचोड है। 
उनके व्यक्तित्व का एक अंश भी मुझमें आ जाये तो मैं खुद को सौभाग्यशाली समझूंगां। 
एक बात का ध्यान रखना चाहिये कि हमारे शब्दों से, हमारे कार्यों से,  (जिन्हें हम गुरू मानते हैं) उनको भी दुख होता है और उन्हें शर्मिन्दगी उठानी पडती है।

14 May 2010

अब मैं भी ब्लागर बन जाऊंगां

आजतक मैं खुद को ब्लागर नहीं समझ पाया या यूं कह सकता हूं कि ब्लागर नहीं बन पाया। आजतक खुद को पाठक ही समझता हूं। जो भी एक आध टिप्पणी देता हूं वो भी एक पाठक के तौर पर ही देता हूं। मगर खुद को ब्लागर कहने में एक हिचक, एक संकोच होता है। जो विचार आते हैं उनको पोस्ट करना तो दूर शब्द ही नहीं दे पाता। लेकिन धीरे-धीरे पता चल रहा है कि ब्लागिंग क्या है? कैसे टी आर पी बढाई जा सकती है? कैसे टिप्पणियों का ढेर इकट्ठा किया जा सकता है? कैसे बिना किसी को जाने, बिना किसी को समझे, बिना किसी को मिले, बिना किसी को पढे, किसी के बारे में गालियां दी जा सकती हैं। आज तक तो ना टिप्पणियों की भूख थी और ना टी आर पी पाने की, ना प्रसिद्धि की चाह थी। मगर अब ब्लाग पढते-पढते मेरा भी मन ब्लाग जगत में हिट होने, बेहतर होने, ब्लागराजा बनने का करने लगा है।

दसवीं तक खींच खांच कर उत्तीर्ण करने वाला मैं, जब ब्लागिंग में आया तो ऐसा लगने लगा था कि मैं दूसरों से अलग हूं। पढे-लिखे, बडे-बडे डिग्रीधारी और विद्वान लोग ब्लागिंग करते हैं। मैं भी उनमें से एक हूं। ये वो जगत है जहां दुनिया जहान के लोग बडे प्रेम से एक दूसरे से पेश आते हैं। विचारों का आदान-प्रदान होता है। बहुत कुछ सीखने को मिलता है। दुनियाभर की बातें, जानकारी, नये लोगों को जानने-समझने का मौका मिलता है।

लेकिन अब भ्रम टूट रहा है। दिख रहा है सब कैसा प्रेम है यहां और कैसे लोग बडे-छोटे (उम्र में) का सम्मान और स्नेह करते हैं। कोई ब्लाग बनाता है, उसे पाठक नहीं टिप्पणियां चाहिये, बस बिना जाने समझे कुछ भी टिप्पणी किसी के बारे में करते चले जाओ। ना किसी की उम्र देखो, ना उनके लेख पढो बस दुसरे के कहे अनुसार गालियां लिखनी शुरू कर दो। आजकल सबसे ज्यादा पढी जाने वाली पोस्टों में केवल विवादित पोस्ट ही दिखाई देंगीं। जब भडासी अपनी भडास गालियों से निकालते थे तो सबने एक तरह से उनका बहिष्कार कर दिया। और अब, अब तो पढे-लिखे भी वही भाषा प्रयोग कर रहे हैं।

मेरा ब्लाग में आना भी मजेदार था। अपने नाम Amit Gupta को सर्च करके मैं www.hindi.amitgupta.in पर पहुंचा तो ब्लाग्स पढता गया। कुछ जानकारी मिली तो सोचा यह तो डायरी लिखने जैसा है। पुरानी डायरी में  कहीं-कहीं से  नकल की हुई रचनाओं को सहेजने का उत्तम साधन मानकर ब्लाग पर लिखने लगा।

अब मेरी तरह रोजाना लाखों लोग कोई जानकारी लेने या किसी शब्द को सर्च करके आप सब के ब्लाग पर भी आते होंगें। कोई गालियां तो सर्च करके पढने नहीं आयेगा।

06 May 2010

एक मछली ने मेरी जान बचाई!

मुल्ला नसरूद्दीन कहीं जा रहा था। रास्ते में एक योगी के द्वार पर रुका, विश्राम करने के लिये। योगी अपने शिष्यों को समझा रहा था जीव-दया के बारे में। बता रहा था कि समस्त जीवन जुडा हुआ है, सब जीव ईश्वर की रचना है और दया ही धर्म है। 
जब योगी बोल चुका तो मुल्ला ने भी खडे होकर कहा कि आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। एक बार मेरी जान एक मछली ने बचाई थी। योगी तो एकदम हाथ जोडकर उसके चरणों में बैठ गया। उसने कहा कि धन्य! मैनें कई पशुओं की जान बचाई है, लेकिन  आज तक किसी पशु ने मेरी जान नहीं बचाई है। तुम्हारी बात से मेरा सिद्धांत पूरी तरह सिद्ध हो जाता है। तुम रूको यहां, विश्राम करो यहां।
तीन दिन मुल्ला नसरूद्दीन की बडी सेवा हुई। और तीन दिन योगी की बहुत सी बातें नसरूद्दीन ने सुनीं। चौथे दिन योगी ने कहा कि अब तुम पूरी घटना बताओ, वह रहस्य, जिसमें एक मछली ने तुम्हारी जान बचा दी थी! नसरूद्दीन ने कहा कि आपकी इतनी बातें सुनने के बाद मैं सोचता हूं कि अब बताने की कोई जरूरत नहीं है। योगी नीचे बैठ गया और कहा, गुरुदेव आप बचकर नहीं जा सकते। बताना ही पडेगा। नसरूद्दीन ने कहा, अच्छा यह हो कि वह चर्चा अब न छेडी जाए। वह विषय छेडना ठीक नहीं है। योगी तो बिल्कुल सिर रखकर जमीन पर लेट गया। उसने कहा कि मैं छोडूंगा नहीं गुरुदेव! वह रहस्य तो मैं जानना ही चाहूंगा। क्या आप मुझे इस योग्य नहीं समझते?
नसरूद्दीन ने कहा, नहीं मानते, तो मैं कहे देता हूं। मैं बहुत भूखा था और एक मछली को खाकर मेरी जान बची! एक मछली ने मेरी जान बचाई!
यह पंक्तियां गीता-दर्शन (भाग पांच)  से साभार ली गई है। अगर ओशो इन्ट्रनेशनल फाऊण्डेशन या किसी को आपत्ति है तो क्षमायाचना सहित हटा दी जायेंगी।