मेरे कस्बे सांपला के रेलवे स्टेशन से लगता हुआ कुंआ होता था (अब सूख चुका है)। दिल्ली से हिसार तक की रेल सवारियां इसी पर पानी पीती थी। रेल गाडियों को भी यहां अपेक्षाकृत ज्यादा देर तक इसी कारण से रोक कर रखा जाता था। हम छोटे-छोटे 25-30 बच्चों का समूह हर रोज शाम को अपने घरों से बाल्टियां और डिब्बे लेकर निकलता था और आने-जाने वाली रेलों के यात्रियों को पानी पिलाता था। हम आवाज भी लगाते थे जल ठंडे - जल ठंडे
लेकिन अब तो मेरे पास ना समय है और ना भावना
लेकिन अब तो मेरे पास ना समय है और ना भावना
समय का तो बहाना है जी, असल बात है कि भाव नही है। अब तो एक बोतल पानी सुबह शाम अपने बैग में लेकर सिरसा एक्सप्रैस में चढता हूं। धीरे-धीरे और चुपके से अकेला ही पीता हूं। ध्यान इस तरफ रहता है कि कोई कह ना दे - "भईया थोडा पानी मैं भी पी सकता हूं"। और यह ना सुनना पडे इसलिये ज्यादातर उस बोगी में बैठना चाहता हूं, जिसमें कोई मुझे जानने वाला दैनिक यात्री ना मिले।
फिर भी कोई ना कोई कह ही देता है और मैं मना कर देता हूं कि भाई पानी खत्म हो गया है या पानी नहीं है। और थोडी देर बाद खुद पीता हूं और खुद ही खुद की नजरों में लज्जित/शर्मिन्दा होता रहता हूं। और दूसरों की नजरों में बेशर्म।
कई बार मेरे साथ यह हुआ कि मैं स्टेशन पर पहुंचा हूं और किसी जानने वाले ने कहा - भाई थोडा पानी देना, मैनें उसे बोतल निकाल कर दे दी। बंदे ने हाथ मुंह धोया (रोकते-रोकते भी) और पानी पिया, खाली बोतल वापिस और मेरा मुंह देखने लायक(अरे भाई अभी तो स्टेशन पर ही खडे हो, नल पर पानी पी लो)
और कई बार ऐसा हुआ कि किसी अनजान ने मुझे पानी पीते देखकर बोतल मांग ली। मैनें अच्छा बनने के चक्कर में बोतल उसे पकडा दी तो उसने पहले पेट भर पिया, जो बचा उसे अपने दोस्त जिसे प्यास भी नही लगी है, उसे पिला दिया। खाली बोतल पकडे मैं खुद को कोस रहा हूं कि मैनें उसे बोतल दी ही क्यों।
भाई मैं पानी ढोकर अपने लिये लाता हूं, दो घंटे का सफर है मेरा और मुझे ही प्यासा मरना पडता है। मुझे नहीं करना यह धर्म और पुण्य का काम, हम तो नरक में जाना ही पसन्द करेंगें।
कुछ दैनिक यात्री तो ऐसे होते हैं कि उनको एक दिन पानी पिला दिया तो प्रतिदिन मेरा चेहरा देखते ही पानी मांगेंगें। भईया जब आपको इतनी प्यास लगती है तो खुद की पानी की बोतल लेकर आया करो। कहते हैं आदत नहीं है, बोझा लगता है।
वैसे कुछ अच्छे लोग भी रेल में आते हैं जो दस-दस बोतलें पानी ले कर आते हैं और सबको पूछ-पू्छकर और आवाज लगाकर पानी देते हैं। उनको मेरा प्रणाम
हम तो जी उन दस-दस वालों से ही सबसे पहले बोतल लेते हैं। फिर अगले दो-तीन दिन उसी बोतल में पानी भर-भरकर पीते रहते हैं।
ReplyDeleteaapko hamaara prnaam!abhi sochna padega,
ReplyDeletemtlb pehle paap karunga fir pani pilaaunga.....
kyo ji...?
kunwar ji,
बढ़िया व्यंग्य मार दिया सोहिल जी
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आप ने, जब भालाई करो तब भी मुर्ख बनो ना करो तब भी, तो भईया बिना भलाई किये ही मुख बन जाओ, यह मुंह ्धोने वाला कि्स्सा मेरे साथ भी हुया था,उस से् अच्छा तरीका है जो पानी मांगे उसे कहो गिलास दो या फ़िर दो चुल्लू पानी अपनी ऒक मे पी लो...
ReplyDeleteयकीन जानिए, आज आपकी बात दिल को छू गयी। बधाई।
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क्या हमें ब्लॉग संरक्षक की ज़रूरत है?
नारीवाद के विरोध में खाप पंचायतों का वैज्ञानिक अस्त्र।
दिल्ली रोहतक रूट पर ही हमारे एक सहयात्री ने दूधिये से पानी मांगा। जानते ही होगे आप, एक डिब्बा पानी का होता है दूधियों के पास। पानी पी के खाली अधसेरी वापिस करते हुये दूधिये से कहा गया, धन्यवाद। कड़वा सा लखाते हुये जवाब दिया उसने, "ताऊ, तेरे धन्यवाद का के करूं? मेरी तो तन्ने नौ रुपये की ..........।"
ReplyDeleteमैं भी साथ में पानी की बोतल लेकर चलता रहा हूं हमेशा गर्मी-सर्दी, और अपने अनुभव भी ऐसे ही हैं।
बढ़िया लगा, जानना भी और बताना भी।
यदि आप पानी लेकर चढ़े हैं तो और भी चढ़ सकते हैं ।
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really very nice artical
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