आठवीं कक्षा का परिणाम आने से पहले ही सोच लिया था कि नौवीं में दाखिला रोहतक के वैश्य स्कूल में लेना है। अन्दर ही अन्दर सोच-सोच कर खुश हुआ करता था कि ट्रेन से रोहतक शहर में जाकर पढाई करुंगा। आस-पडोस के कितने बच्चे रोहतक पढते हैं, कितना मजा करते हैं। सब अपने स्कूल की, ट्रेन-बस के सफर की बातें बताते थे तो अपने अन्दर एक हीनता महसूस होती थी। आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद पापा को मेरी जिद के आगे झुकना पडा और मुझे रोहतक के वैश्य पब्लिक स्कूल में दाखिल करवाने ले गये। वहां जाकर मेरी खुशी मेरे चेहरे से झलक रही थी और पापा के चेहरे से मजबूरी और बेबसी स्कूल की फीस और अन्य खर्चा देखकर।
एडमिशन फार्म आदि भरने के बाद फीस भरने से पहले मैनें कहा कि पहले मैं नौवीं कक्षा में जाकर अपने दोस्तों से मिलना चाहता हूँ कि किस सेक्शन में हैं। मैं भी उसी सेक्शन में दाखिला कराऊंगा। वहां सांपला से आने वाले बच्चों का नाम बताने पर एक भी सांपला से आने वाला छात्र नहीं था। तभी किसी ने बताया कि बराबर वाली इमारत वैश्य हाई स्कूल है, शायद सांपला के छात्र उस विद्यालय में हों। हम तुरन्त बाहर निकले और वैश्य हाई स्कूल में दाखिला लिया। मेरे सभी दोस्त 'सी' सेक्शन में थे तो मेरा दाखिला भी 'सी' सेक्शन में करवाया गया। नौवीं कक्षा के 'सी' सेक्शन में जगह ना होते हुये भी 'सी' सेक्शन में दाखिला दिलाने में मदद की मेरे कक्षाध्यापक श्री प्रेमचन्द गुप्ता (P.C. Gupta) जी ने, जो मेरे पापा के जानने वाले निकले। असल में श्री पी सी गुप्ता जी के मामाजी हमारे पडोसी हैं और पापा जी से उनकी मित्रता सांपला में अपने मामा जी के घर आने-जाने से हुई थी। श्री पी सी गुप्ता जी की कक्षा में पढते हुये इस बात का खूब फायदा उठाया मैनें। सुबह 7:30 बजे से 1:50 बजे तक कक्षायें लगती थी, पर 12:20 बजे के बाद रोहतक से सांपला आने वाली गाडी शाम 3:50 पर ही थी। जब भी जल्दी (12:20 वाली रेल से) घर जाने का मन होता उनसे ही छुट्टी लेता था।
गूगल से साभार |
कुछ ही दिनों में रोहतक जाकर पढने की खुशियां ठंडी होने लगी थी। जब सुबह 5:00 बजे उठकर तैयार होना होता था और 6:00 बजे की ट्रेन पकडनी होती थी। वैसे तो 1991 में ज्यादातर रेलों में डीजल से चलने वाले इंजन ही थे पर इस पैसेंजर में कोयले वाला इंजन था। इस ट्रेन की खिडकियां भी लकडी की होती थी। आमतौर पर रेल में ज्यादा यात्री नहीं होते थे और हमें खिडकी वाली सीट मिल जाती थी, लेकिन इंजन से कोयले के बहुत छोटे-छोटे कण और राख उड-उडकर खिडकी से अन्दर आते थे और हमारे कपडों पर गिरते थे। कभी-कभी तो कोई कण आँख में भी गिर जाता था, लेकिन खिडकी पर बैठ कर सुबह की ठंडी हवा खाने का मोह और लहलहाते खेत और खेतों के अन्दर रोज (नीलगाय) के झुंड देखना मुझे अच्छा लगता था। तो हम सांपला के 10-12 छात्र 3:45 बजे तक स्कूल में ही रहते थे। दो बार लंच करते, अपना होमवर्क निपटाते, खेलते-कूदते, लडाई-झगडा करते, ब्लैक-बोर्ड पर चित्रकारी करते रहते। एक अलमारी हमें स्कूल में हमारा सामान रखने के लिये दे दी गई, जिसमें हम अपना होमवर्क निपटा कर बस्ता और किताबें भी वहीं रख देते थे।
कुछ सम्पन्न घरों के छात्रों ने रेल और बस दोनों पास (मासिक टिकट) बनवा रखे थे। कभी-कभी उनके साथ मैं भी बस में आने लगा। टिकट के पैसे तो मेरे पास होते ही नहीं थे और कंडक्टर भी कुछ नहीं पूछते थे। एक बार सांपला आने से 5-6 किलोमीटर पहले चैकिंग शुरु हुई। टिकट चैकर्स का 3-4 लोगों का स्टाफ टिकट चैक कर रहा था, मुझे पसीना आने लगा। एक मित्र ने अपना पास चैक करवा कर मुझे पकडाना चाहा कि यही दिखा देना, लेकिन मैं समझ ही नहीं पाया और टिकट निरिक्षक मेरे पास आ गये। मैनें कहा कि मेरे पास टिकट भी नहीं है और पैसे भी नहीं है तो उन्होंने मुझे बस से वहीं उतार दिया। तभी मेरे 5-6 मित्र (जो सभी मासिक टिकट धारक थे) भी मेरे साथ ही वहीं पर उतर गये। कहा कि तू इतनी दूर से अकेला कैसे आयेगा, हम भी तेरे साथ ही चलेंगे और उसदिन हम सब 5-6 किलोमीटर पैदल चलकर ही घर पहुँचे। एक बार और ऐसे ही 10-12 किलोमीटर पैदल चलना पडा था, जब वी पी सिंह प्रधानमंत्री थे और आरक्षण आंदोलन की आग फैली थी। रोहतक और सांपला के बीच में तीन स्टेशन हैं, अस्थल बोहर, खरावड और ईस्माइला हरियाणा। रोहतक से 3:30 वाली रेल से आते वक्त खरावड में उपद्रवियों ने रेल को रोक दिया। इंजन में आग लगा दी गई और पटरियां उखाड दी गई तो हम सांपला तक पैदल ही आये थे।
यह तो बहुत बढ़िया और महत्व रखने वाली ब्लॉगिंग की आपने बन्धु! और बहुत ही उम्दा लिखा है!
ReplyDeleteपुरानी यादें ताजा करा दी। क्या दिन थे बचपन के। बहुत सुन्दर लेख ।
ReplyDeleteसआशिर्वाद,
सुशील गुप्ता
कई स्थानों पर बहुत बाद तक स्टीम इंजन चलता रहा था।
ReplyDeleteमस्त मस्त यादें।
ReplyDeleteअस्थल-बोहर स्टेशन और मठ के बारे में और जानकारी देते तो लोगों को अच्छा लगता। वैसे तो तीनों स्टेशन विशिष्ट हैं, हमारा एक साथी रोज खरावड़ से पानी भरकर लाया करता था और उस पानी की बहुत तारीफ़ करता था।
आरक्षण के दिनों में नेहरू प्लेस से शाहदरा तक पैदल आये थे, सब याद दिला गये गुरू।
@पहले ही सोच लिया था कि नौवीं में दाखिला रोहतक के वैश्य स्कूल में लेना है।
ReplyDeleteअरे भाई जाट स्कूल में भर्ती हो जाता तो मुख्यमंत्री होता
चालण दे आग्गे की कहाणी, इब चोपड़ी का सही पाना खोल्या सै।:)
राम राम
ये डायरी तो पुराणी शराब की तरह से मजेदार निकली | कहानी फ्लैस बैक में जब तक चलेगी मजे देगी | जारी रखो .....|
ReplyDeleteबहुत सुदर जी,वैश्य हाई स्कूल यह स्टेशन के पीछे ही तो नही? अगर हा तो यहां हमारा १० वीं का सेंटर पडा था, पेपर देने के लिये, यह यादे बहुत सुंदर लगी कमल हे इतनी जल्दी दिल भर गया रेल से, इस साल मेरे बेटे की टिकट लगनी थी, उस ने मुझे नही बताया ओर पुरा साल बिना टिकट गया ओर आया बस से वो अकेला नही करीब करीब आधी कलास... ओर आखरी दिन मुझे बताया... यह यादे हमेशा याद रहती हे
ReplyDeleteपूरा संस्मरण पढ़ा, मुझे अपने कालेज के दिन याद दिला दिए ! हार्दिक शुभकामनायें !
ReplyDeleteबढ़िया संस्मरण. ऐसे रेल में बैठ के पढने तो कभी नहीं गया. लेकिन पैसेंजर ट्रेन में चलने का मजा तो लिया ही है.
ReplyDeleteअरे भाई, राम-राम
ReplyDeleteजब य़ू आरक्षण का पंगा था ना, हम भी दसवी में थे, जबजा ऊ पंगा चल रहा था, आरक्षण वाला, हम बस में जाया करते थे, वो भी डी.टी.सी की बस में, पढते टेम तो कोनी रेल में गये सूं, पर गाम में जाना-आना व अब कभी-कभार बाइक, रेल, साइकिल जो जी में आवे उस पे नौकरी पे जावे करे,
भई, हमने नहीं किया आजतक भाप वाली गाडी में सफर। हमारे जमाने में यह विलुप्त हो चुकी है।
ReplyDeleteखैर, अगले भाग का इंतजार है।