10 September 2008

आस का दीया

बुझाना ही था इक दिन तो आस का दीया जलाया क्यों था
गिराना ही था इक दिन तो पलकों पे अपनी बिठाया क्यों था
आषाढ में मुझे झुलसाना था तो सावन का अहसास कराया क्यों था
कांटों की चुभन ही देनी थी तो फूलों की सेज पर सुलाया क्यों था
बुझाना ही था इक दिन तो आस का दीया जलाया क्यों था

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