30 December 2011

ताऊ का फोन और सांपला ब्लॉगर्स मीट के बारे में

कल शाम ऑफिस से घर वापिस जाते हुये  ट्रेन से उतरा ही था कि मेरा फोन बजा। उधर से ताऊ बोल रहे थे। ताऊजी ने बताया कि दिल्ली आये हुये हैं और श्री राज भाटिया जी से बात करना चाहते हैं और उनका नम्बर 09999611802 बंद आ रहा है।  मैनें बताया कि राज जी तो 28-12-2011 की रात 10:00 बजे की उडान से जर्मनी पहुंच चुके होंगे और अब 0999611802  पर राज भाटिया जी से बात नहीं की जा सकती है। फिर मैनें ताऊजी को सांपला ब्लॉगर्स मिलन के बारे में बताया। ताऊजी आजकल अन्तर्जाल से दूर हैं, इसलिये उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं थी। मैनें भी ताऊजी को या किसी भी ब्लॉगर को ईमेल या फोन नहीं किया था। हालांकि एक-दो  ब्लॉगर्स इस मीट के बारे में जानते हुये और सांपला आने का मन होते हुये भी शायद इसी वजह से नहीं आये होंगे, ऐसा मुझे लगता है।  मुझे कहा भी गया था कि फलाने-फलाने को निमंत्रण दे देना। लेकिन मेरा विचार ये है कि सबको मेल द्वारा निमंत्रण देना संभव नही हो सकता था। मैं बहुत सारे ब्लॉग्स को फॉलो करता हूं और सभी ब्लॉगर्स मेरे लिये सम्मानीय है। इनमें से कुछ को व्यक्तिगत मेल या फोन करना मुझे दूसरों के साथ फर्क करने का अहसास दिलाता।

इस मीट की नींव पिछले साल तिलयार झील पर हुई ब्लॉगर्स मीट के समय ही पड गई थी। सांपला सांस्कॄतिक मंच पिछले वर्ष करवाये कवि सम्मेलन की सफलता से उत्साहित था और अपनी दूसरी भव्य प्रस्तुति के लिये शुभ-मूहर्त निकलवा रहा था। 14  से 28 दिसम्बर के मध्य राज जी भारत प्रवास पर आ रहे थे। राज जी यहां आने पर भारतीय ब्लॉगर्स से मिलने का बहाना ढूंढते हैं, लेकिन कम समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों से मिलना मुश्किल होता है। बस 24 तारीख फिक्स हो गई और दिन में ब्लॉगोत्सव करवाने का निर्णय लिया गया। पहले इस मीट का आयोजन मैं और राज जी करना चाहते थे, लेकिन सांपला सांस्कॄतिक मंच ने इस मीट का आयोजक बनने की इच्छा जाहिर की।

कुछ लोग ऐसी ब्लॉगर्स मीट पर प्रश्नवाचक दॄष्टि रखते हैं। उन्हें मैं बताना चाहता हूं कि ब्लॉगिंग उत्थान संबधिंत गंभीर मसलों पर विचार के लिये तो ब्लॉगपोस्ट से बढिया क्या हो सकता है। और ये ब्लॉगर मीट तो केवल मिलने-मिलाने के लिये ही थी। आभासी रिश्ते जब आमने-सामने होते हैं तो कितने ही वास्तविक रिश्ते फीके लगने लगते हैं, इन रिश्तों गन्नों की मिठास तो इन्हें खाने वाला ही जान सकता है। दूसरी बात इस मीट से पहले जिस क्षेत्र में कोई ब्लॉग शब्द को नही जानता था, वहां से 4-5 नये ब्लॉगर्स पैदा होने के लिये तैयार खडे हैं तो क्या ये बात हिन्दी ब्लॉगिंग के लिये बुरी है। ऐसी ब्लॉगर्स मीट से एक उत्साह पैदा होता है, जो ब्लॉगिंग में ऊब रहे लोगों में ऊर्जा का संचार भी करता है।

मैं सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद और आभार प्रकट करता हूं, जिन्होंने अपना अमूल्य समय खर्च करके और ठंड में लंबी यात्रा की परेशानियों को झेलते हुये सांपला ब्लॉगर्स मिलन में उपस्थिति दी। सुश्री संगीता पुरी जी और श्री ललित शर्मा जी ने प्रॉक्सी अटेंडेंस भी लगाने की कोशिश की थी।  इनका फोन आना ये दर्शाता है कि इन ब्लॉगर्स का मन तो सांपला में ही है पर किन्हीं मजबूरियों की वजह से नहीं आ पाये हैं।

बहुत सारी बातें कहनी हैं लेकिन धीरे-धीरे कह पाऊंगा। अभी तो प्रणाम स्वीकार करें।

सांपला ब्लॉगर्स मीट से जुडी अन्य पोस्ट

अनोखी यात्रा………….अनोखे पल

सांपला ......एक मुलाकात , हरियाणा के गांव की ,अंतर्जाल के बाशिंदों से

जब अलबेला खत्री स्टेशन से उठाए गए … सांपला ब्लागर मीट 24-12-11 (भाग-1)

कवि सम्मेलन और रज़ाई वार्ता … सांपला ब्लागर मीट 24-12-11 (भाग-2)

कमाल है ब्लोग्गेरो के मेल-जोल होने पर भी कसी को किसी तरह का द्वेष हो सकता है....?(कुँवर जी)
सांपला, ब्लॉगर मीट, अन्ना भाई...खुशदीप
SAMPLA BLOGGER MEET साँपला ब्लॉगर मिलन 1
"SAMPLA BLOGGER MEET साँपला ब्लॉगर मिलन समापन किस्त "
 

19 December 2011

महफिल सजी है आजा…………॥

"हर बात का वक्त मुकर्रर है, हर काम की शात होती है
वक्त गया तो बात गयी, बस वक्त की कीमत होती है"
देर ना हो जाये कहीं देर ना हो जायें
महफिल सजी है आजा, के तेरी कमी है आजा
ख्वाबों की कसम तुझे ख्यालों की कसम है
आजा के तुझे चाहने वालों की कसम है

आयोजन, स्थल, रास्ते, समय आदि की पूरी और विस्तृत जानकारी के लिये नीचे दिये लिंक्स पर क्लिक करें।
कौन-कौन आ रहा है एक बार फिर से नजर मार लें और जिनके नाम निम्न सूचि में नहीं हैं कृप्या टिप्पणी ईमेल या फोन द्वारा इन नम्बरों पर श्री राज भाटिया जी को 09999611802 या अन्तर सोहिल (मुझे) को 09871287912 पर अपने आने की खुशखबरी जल्द दें।
श्री सतीश सक्सेना जी  की भी आने की पूरी संभावना है।

06 December 2011

Two Donkeys that live happily together!

पिछले साल एक पोस्ट लिखी थी क्या गधा सचमुच गधा होता है? जो साबित करती थी कि गधा अपने नाम जितना गधा नहीं होता। मेरी शादी के बाद मुझे यह अनुभव तो हो गया कि पति गधा होता है (अजी गधा नहीं होता तो शादी क्यों करता?) लेकिन क्या पत्नी भी??? पति-पत्नी बराबर होते हैं उन दो गधों के जो साथ-साथ रहते हैं। यह सिद्ध करती ईमेल मुझे मिली है। तो आप भी जान लीजिये कैसे?

Equation 1

Human = eat + sleep + work + enjoy
Donkey = eat + sleep

गूगल से साभार
Therefore:
Human = Donkey + Work + enjoy

Therefore:
Human-enjoy = Donkey + Work

In other words,
A Human that doesn't know how to enjoy = Donkey that works.

Equation 2

Man = eat + sleep + earn money
Donkey = eat + sleep

Therefore:
Man = Donkey + earn money

Therefore:
Man-earn money = Donkey

In other words,
Man who doesn't earn money = Donkey

Equation 3

Woman= eat + sleep + spend
Donkey = eat + sleep

Therefore:
Woman = Donkey + spend
Woman - spend = Donkey

In other words,
Woman who doesn't spend = Donkey

To Conclude:
From Equation 2 and Equation 3
Man who doesn't earn money = Woman who doesn't spend
So Man earns money not to let woman become a donkey!
And a woman spends not to let the man become a donkey!

So, We have:
Man + Woman = Donkey + earn money + Donkey + Spend money

Therefore from postulates 1 and 2, we can conclude
Man + Woman = 2 Donkeys that live happily together!

28 November 2011

फार्मूला नम्बर 45 क्या है?

आधे रास्ते में गाड़ी रोक कर साले तमाशा करने लगे। बस फ़िर अपन ने अपना फ़ार्मुला नम्बर 45 इस्तेमाल किया। उस ऑटो मालिक को कोने में ले जाकर मंत्र दिया। उस पर मंत्र का असर बिच्छु के डंक मारने जैसा हुआ।॥….।॥….॥साले सवारी देख कर बैठाए करो, खुद भी मरोगे और हमें भी मरवाओगे। चलो अब जैसे भी होगा इन्हे गौरीशंकर 1 तक पहुंचा कर आना है।

"तेरे बाप का राज है क्या" इस पोस्ट में उपरोक्त पंक्तियां पढकर कई मित्रों ने फार्मुला नं 45 और 36 और मंत्र के बारे में जानने की इच्छा की थी। लेकिन श्री ललित शर्मा जी ने किसी को इन मंत्रों की जानकारी नहीं दी। दोनों फार्मूले के नम्बर सबसे छोटी अविभाज्य संख्या 3 से विभाजित होते हैं। तो तीन अक्षरों का वह मंत्र कौन सा है जिससे बिगडे काम बन जाते हैं और बडे-बडे तीसमारखां आपके साथ बदमाशी या बेईमानी करने का ख्याल दिल से निकाल देते हैं। यह मंत्र मैं आपको बताऊंगा, लेकिन उससे पहले एक सूचना पढ लीजिये -   

श्री राज भाटिया जी ने जर्मनी से आकर आप सबसे मिलने का कार्यक्रम बनाया है। कुछ मित्र कहते हैं कि कोशिश करेंगें। मेरा उनसे कहना है कि वादा मत कीजिये केवल कोशिश कीजियेगा, क्योंकि
वायदे टूट जाते हैं अक्सर, कोशिशें कामयाब होती हैं
तारीख - 24 दिसम्बर 2011
दिन - शनिवार
समय - सुबह 11:00 बजे से शाम 4:00 बजे 
स्थल -  पंजाबी धर्मशाला, रेलवे रोड, सांपला

देखिये निम्न पोस्ट

श्री राज भाटिया जी के ब्लॉग पराया देश से उद्धरित पंक्तियां -  
"मैं अकेला ही चला था, जानिबे मंजिल मगर, 
लोग साथ आते गये, कारवाँ बनता गया" 
हम और आप भी जुड हुये हैं इस कारवाँ से। लेकिन श्री राज भाटिया जी के शब्दों में इस ब्लॉगर मिलन का उद्देश्य केवल आभासी संसार से निकल कर आमने-सामने मिल बैठना है।
इस ब्लांग मिलन मे आप सब आमंत्रित हैं।  
इस ब्लॉग मिलन का असली मकसद सिर्फ़ यही है कि हम आपस में मिले, जिन्हे हम टिपण्णियां देते हे, जिन के लेख पढते हे, क्यों ना उन सब से मिले। इस ब्लांग मिलन मे कोई संगठन , यूनियन या कोई ओर ऐसी-वैसी बात नही होगी बस खाना पीना, बातें, विचारो का आदान प्रदान ओर आपस मे मिलना जुलना होगा ओर ब्लॉगिंग से सम्बधित बातें होंगी। सो एक बार आप सब से मिलना हो जायेगा इसी बहाने, ओर ब्लॉगिंग की बातों के अलावा भी बहुत सी बातें होंगी, चुटकले होंगे, कविता होगी, शेर, बकरी, गजल या गीत होगा।

अरे! आपको बडी जल्दी है मंत्र के बारे में जानने की। चलो बता देता हूँ। आपको बस इतना करना है कि कोई भी आपके साथ कुछ गलत करता है तो उसके कान में 3 बार ये 3 शब्द कहें - "मैं ब्लॉगर हूँ" "मैं ब्लॉगर हूँ" "मैं ब्लॉगर हूँ"
अगर आप सचमुच ब्लॉगर हैं तो सामने वाला हथियार डाल देगा, वर्ना आप समझदार हैं ही-ही-ही-ही

17 November 2011

मुझे शिकायत है

हम ब्लॉगर्स जिन्हें पढते हैं और जो हमारा ब्लॉग पढकर टिप्पणियां करते हैं, उनसे आमने-सामने मिलने की इच्छा कई बार होती रहती है।आप भी अपने आगमन की सूचना (केवल ब्लॉगर मीट/ केवल कविसम्मेलन/ या दोनों के बारे में जरुर बतायें) टिप्पणी, ईमेल या फोन (9871287912) द्वारा जल्द से जल्द दें। ताकि आपके सोने, खाने, आराम आदि की व्यवस्था सामर्थ्यानुसार और बेहतर ढंग से की जा सके। प्रायोजक कौन है?

08 November 2011

रचना जी के सवाल से उपजा सवाल

"सरकार का कोई भी प्रयास कुछ नहीं कर सकता क्युकी जो लोग "गरीब " हैं वो अपने बच्चो को पैसा कमाने की मशीन मानते हैं और खुद कहते हैं की बच्चे ज्यादा होने से कोई नुक्सान नहीं होता . उनके हिसाब से बच्चो पर कोई खर्चा ही नहीं होता हैं . उनका तो एक ५ साल का बच्चा भी रद्दी जमा करके दिन में ३० रूपए कमा लेता हैं।"

हालांकि उनकी ये पंक्तियां किसी दूसरे संदर्भ में हैं, फिर भी इन बातों से मेरे मन में कुछ विचार आये हैं।
1> क्या ज्यादा बच्चे पैदा करने के बाद भी "गरीब" के जीवन स्तर में सुधार आ पाता है।
2> उच्च और मध्य श्रेणी की बजाय गरीब परिवारों में जन्म की दर अधिक है, इस कारण से गरीब वर्ग में बढोतरी बढती जा रही है।
3> किसी भी देश में संसाधनों की अपनी सीमा होती है, इस कमी के कारण गरीब अपने स्तर से बाहर नहीं आ पाता।

अब ये आंकडे देखिये : 
1> भारत में दुनिया की सबसे ज्यादा मलिन बस्तियां हैं।
2> दुनिया की आबादी का 17.5% भारत में है और क्षेत्रफल का केवल 2.4% है।
3> भारत की आबादी में 42% जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे है।
4> भारत के शहरों में रह रहे 30करोड परिवारों में 6करोड मलिन बस्तियों में निवास करते हैं।

अब सवाल ये है कि क्या जन्म देने का अधिकार सबको मिलना चाहिये। जनसंख्या वृद्धि रोकने में सरकार के  प्रयासों की कमी नहीं है, फिर भी इसे लोगों की इच्छा पर छोडा गया है। इसी कारण से भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या वृद्धि की दर करीबन 18% है।  ऐसे उपाय जिन्हें सख्ती से इस देश में लागू किया जाये तो जनसंख्या वृद्धि पर नकेल लगाई जा सकती है। 

1> आरक्षण का लाभ केवल उन्हीं को मिले जो केवल 1बच्चा पैदा करे उसी को मिलना चाहिये।
2> सरकारी संसाधनों का लाभ जैसे अस्पताल आदि से मदद केवल पहले बच्चे के जन्म पर मिले। दूसरे बच्चे के जन्म का खर्च आदि परिवार स्वयं वहन करे।
3> पालन-पोषण का सामर्थ्य हो तो दम्पत्ति को दूसरा बच्चा पैदा करने की अनुमति मिले।
4> ॠण या अन्य मदद चाहने वालों के लिये नसबंदी जरुरी कर दी जाये।
5> गर्भनिरोधक हर वस्तु को सहज, सुलभ, मुफ्त, सब्सिडी या टैक्स फ्री किया जा सकता है।

भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, चोरी, लूटमार, हत्या सबकी एक ही जड जनसंख्या वृद्धि है। 
चलते-चलते एक सवाल और है कि आरक्षण पिछ्डों और दलितों के विकास के लिये बना था। अगर कोई आई पी एस रैंक का अधिकारी या इन्कम या सेल्स टैक्स ऑफिसर या कोई बडा पद आरक्षण के जरिये पा जाता है तो क्या उसके बच्चों को भी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिये??? 



 

25 October 2011

इसे परिवार से छुपकर नहीं पढना पडता था

घर की साफ-सफाई करते हुये कुछ पुरानी पत्रिकायें भी निकल आई। कम्पयूटर संचार सूचना, सरिता, मनोहर कहानियां, नंदन, सरस सलिल आदि। मनोहर कहानियां देखकर मैं खुश हो गया। बहुत छोटा था तो चंपक और लोटपोट पढता था, फिर नंदन और सरस सलिल पढते हुये बडा हुआ बाद में मनोहर कहानियां का दीवाना हो गया। कॉमिक्स और पत्रिकाओं का इतना शौक होता था कि सारी जेब खर्ची इन्हीं पर जाती थी। मामा-बुआ के घर जब छुट्टियां मनाने या किसी रिश्तेदार के घर जाता तो वहां जो भी पत्रिका दिख जाये अपने साथ ले आता था (कई बार चोरी से भी) :-) ज्यादातर पुरानी किताबों की दुकान या कबाडी से खरीदारी करता। दसवीं कक्षा तक आते-आते मेरे पास अच्छा खासा भण्डार हो गया था। कॉमिक्स और पत्रिकाओं का और एक दिन मैं घर के बाहर ही किताबों की दुकान लगाकर बैठ गया। एक खोखा (गुमटी) बनवाई, इसी में कॉमिक्स बेचते-बेचते पतंग, पान, बीडी-सिगरेट, गुटखा कब बेचने लगा पता ही नहीं चला। 

अरे मनोहर कहानियां की बात करते-करते कहां पहुंच गई। खैर, 17-18 वर्ष की आयु में मनोहर कहानियां मेरी पसन्दीदा पत्रिका बनी थी इसमें छपी एक लेख श्रंखला के कारण जो आधारित थी अंग्रेजो के जमाने में विलियम हेनरी स्लीमैन द्वारा लिखे भारत के ठगों के इतिहास पर। मैं आसपास के शहरों में कबाडियों और पुरानी किताबों वालों से ढूंढकर मनोहर कहानियां खरीदता था। मेरे पास इसका करीबन 100-125 इशूज का अच्छा खासा खजाना हो गया था। एक दिवाली पर साफ-सफाई करते वक्त सुबह-सुबह मम्मी ने पूछा कि एक गत्ते के बक्से में बहुत सारी किताबें पडी हैं, इन्हें कबाडी को बेच दें क्या? मैनें नींद में कहा - बेच दो। कुछ महिनों बाद ध्यान आया कि अरे ये तो मेरा खजाना लुट गया। अब पछताय होत क्या, जब चिडिया चुग गई खेत। 

मनोहर कहानियां और सत्यकथा का प्रकाशन पहले (1944 से) माया पब्लिकेशन करती थी।  शायद 2003 या 2004 के बाद किसी कारण से मनोहर कहानियां बंद हो गई थी। अब ये दोनों डायमंड पॉकेट बुक्स के खाते में हैं और डायमंड ने इनको मधुर कथायें टाईप का सी-ग्रेड बना दिया है। पता नही वो लेखक भी कहां गये, जिन्होंने इस पत्रिका को अपने समय की सबसे ज्यादा बिकने वाली मासिक पत्रिका बनाया था।
आज नेट पर सर्च करने पर माया पब्लिकेशन के बारे में कुछ पता नहीं लग पाया और कोई भी पुराना प्रकाशन इस पत्रिका का नहीं मिला। अलबत्ता श्री संजीत त्रिपाठी जी का यह आलेख मिला जिस पर श्री सागर नाहर जी कि यह टिप्पणी बहुत सही और सच्ची है :-
मेरी राय सबसे अलग है मनोहर कहानियाँ के प्रति, यह मासिक पत्रिका एक समय भारत की सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिका हुआ करती थी। यह पत्रिका उतनी भी बुरी नहीं थी। मैं इस पत्रिका को बहुत चाव से पढ़ा करता था और आज भी मिल जाये तो पढ़ता हूँ।इस पत्रिका को छुप कर या छुपा कर पढ़नॆ झाईशा इसमें कुछ नहीं आता, हाँ इसकी तर्ज पर दर्जनों पत्रिकायॆं वाहियात सामग्री परोसा करती थी जिसमें से कई बंद हो गई। मनोहर कहानियां में कई एतिहासिक कहानियां आती थी जो बहुत ही शानदार हुआ करती थी।

माया पब्लिकेशन के समय में इसमें कभी भी ऐसे लेख, कहानी या भाषा नहीं होते थे कि परिवार से छुपकर पढना पडता। आज मनोहर कहानियां का नाम चटखारे लेने वाले लेखों की पत्रिकाओं में गिना जाता है तो अच्छा नहीं लग रहा।

24 September 2011

हर एक ब्लॉगर जरुरी होता है

अनशन के लिये जैसे अन्ना होता है वैसे हर एक ब्लॉगर जरुरी होता है
ऐसे हर एक ब्लॉगर जरुरी होता है

कोई सुबह पांच बजे पोस्ट सरकाये
कोई रात तीन बजे टीप टिपियाये

एक तेरे ब्लॉग को फॉलोइंग करे
और एक तेरी पोस्ट पे लाईक करे

कोई नेचर से भूतभंजक कोई घोस्ट होता है
पर हर एक ब्लॉगर जरुरी होता है

एक सारी पोस्ट पढे पर कभी-कभी टिप्पी करे
एक सभी पोस्ट पर सिर्फ नाईस कहे

धर्मप्रचार का कोई ब्लॉग, कोई भंडाफोडू
कोई कहे जो तुझसे सहमत ना हो उसका सिर तोडूं

कोई अदला-बदला की टिप्पणी कोई लिंक देता है
लेकिन हर इक ब्लॉगर जरुरी होता है

इस गुट का ब्लॉगर कोई उस मठ का ब्लॉगर
कोई फेसबुक पर चैट वाला क्यूट-क्यूट ब्लॉगर

साइंस ब्लॉगर कोई ज्योतिष ब्लॉगर
कोई दीक्षा देने वाला बा-बा ब्लॉगर

कविता सुनाने वाला कवि ब्लॉगर
उलझन सुलझाने वाला वकील ब्लॉगर

पहेली पूछने वाला ताऊ ब्लॉगर
आपस में लडवाने वाला हाऊ ब्लॉगर

देश में घुमाने वाला मुसाफिर ब्लॉगर
विदेश दिखाने वाला देशी ब्लॉगर

तकनीक सिखाने वाला ज्ञानी ब्लॉगर
सबको हंसाने वाला कार्टूनिस्ट ब्लॉगर

ये ब्लॉगर, वो ब्लॉगर, हास्य ब्लॉगर, संजीदा ब्लॉगर
हिन्दू ब्लॉगर, मुस्लिम ब्लॉगर, नया ब्लॉगर, पुराना ब्लॉगर
चोर-अनामी
महिला ब्लॉगर-पुरुष ब्लॉगर
क से ज्ञ

हर इक सोच में अन्तर होता है
पर हर एक ब्लॉगर जरुरी होता है
लेकिन हर एक ब्लॉगर जरूरी होता है

29 August 2011

कैसे कहूं "मैं अन्ना हूँ"

अन्ना की मुख्य तीन मांगें मानकर सरकार ने संसद में लोकपाल बिल पेश कर दिया है। लेकिन मेरा व्यक्तिगत विचार था और है कि भारत देश में जनलोकपाल बिल जैसा कानून तो कोई भी सरकार नहीं लायेगी। मेरा समर्थन अन्ना के साथ था और है, क्योंकि आज शायद पूरे भारत में अन्ना जैसा व्यक्तित्व बहुत मुश्किल से मिलेगा। मुझे पूरा विश्वास है कि लोकपाल कानून आने से थोडा फर्क तो जरुर पडेगा। डंडे का डर फिजूल नहीं होता, बहुत से आपराधिक कार्य डंडे के डर से ही रुके होते हैं। लगभग सभी धर्मों में भी जीवन में आचरण के लिये परम सत्ता का भय दिखाकर नियम बनाये गये हैं। 
मेरा शुरू से मानना रहा है कि जबतक हर आदमी नैतिक नहीं हो जाता, तबतक भ्रष्टाचार का समूल नाश नहीं हो सकता और ऐसा होना असंभव है। इतिहास में भी कभी भी ऐसा नहीं हुआ है कि हर आदमी नैतिक हो जाये। 

अब बात रामलीला ग्राऊंड में चलने वाले आंदोलन के दिनों की। मेरे कार्यस्थल के नजदीक होने की वजह से मैं लगभग हर रोज रामलीला मैदान में जाता रहा। दूसरे लोगों को भी वहां चलने के लिये प्रेरित करता रहा। सुबह 10 बजे ट्रेन से उतरकर मैं सीधा रामलीला मैदान पहुँचता था। वहां सबसे पहले भजन होता था "रघुपति राघव राजा राम, सबको सन्मति दे भगवान"। फिर 1-2 घंटे में या एक दो गाने वगैरा सुनकर मैं ऑफिस आ जाता था। वहां स्टेज पर जब कोई बोलता था तो लोगों के नारे आदि की वजह से सुनना समझना मुश्किल सा होता था। कभी-कभी दोपहर में और शाम को भी 1-2 घंटे के लिये मैं वहां जाता रहा। 

कुछ लोग पिकनिक मनाने ही आते थे और बस फोटो खींचने-खिंचवाने में लगे रहते थे और कुछ लोग मीडिया के कैमरों के सामने आने की जुगत लगाते रहते थे। दिल्ली में रह रहे कुछ लोग, मजदूरी करने वाले और दिहाडी कार्य करने वाले लोग मुफ्त खाना खाने के लिये आते थे। कुछ नयी उम्र के लोफर टाईप लडके अन्ना टोपी लगाये लफंगागिरी करते रेलवे स्टेशनों और सडकों पर घूम रहे होते थे। अवसरवादियों ने इस आन्दोलन में धन भी खूब कमाया। तिरंगा, रिस्टबैंड, फटके, गलपट्टी, टोपी और चेहरे पर तिरंगा बनाने वाले भी हजारों की संख्या में चारों तरफ फैले थे। जो आपके कपडे देखकर हर वस्तु का दाम वसूल रहे थे। एक टोपी की कीमत 5रुपये से 50 रुपये कुछ भी मांग लेते थे। 

मैनें एक दिन दो टोपी 20रुपये की, एक दिन दो टोपी 15रुपये की और एक बार दो टोपी 10रुपये की खरीदी। लेकिन मैनें "मैं अन्ना हूँ" लिखी टोपी केवल एक दिन केवल 15मिनट के लिये ही पहनी। क्योंकि मैं अपने आप को कभी भी ये नहीं कह पाया कि "मैं अन्ना हूँ"। शुद्ध विचार और शुद्ध आचार ये दो बातें मेरे दिमाग में घूमती रही। दूसरों से मैं कितना भी छुपा लूं, लेकिन खुद से तो चाहकर भी नहीं भुला सकता। मुझे याद आता है अपना गंदा आचरण, अपने गंदे विचार, कुछ घटनायें जिन्हें मैं सबसे छुपाये हुए हूँ। अपने अन्दर भरे काम, क्रोध,लोभ और अशुद्ध विचारों के रहते मैं कैसे कह सकता हूँ कि "मैं अन्ना हूँ"।
   

26 August 2011

अब वो झल्लाती नहीं है

गूगल से
ऑफिस में लंचटिफिन ना ले जाने की बात से ही अंजू नाराज होने या मेरे बैग में टिफिन रखने की जबरदस्ती करने लगती थी। लेकिन पिछले तीन दिन से मैं लंच बॉक्स नहीं ला रहा हूँ तो भी वह कुछ नहीं बोलती। दो-तीन दिन से भूख कम हो रही है या लगता है मन ही नहीं करता। हर कौर, हर निवाले के साथ एक बात याद आती है कि एक आदमी मेरे अधिकारों की लडाई के लिये भूखा बैठा है।

25 August 2011

अन्ना बच्चों के मुख से

सुबह अन्जू को बोलकर आया हूँ कि शायद आज शाम मैं घर ना सकूं। हो सकता है मैं संसद पर जाकर गिरफ्तारी दे दूं। अन्जू ने कहा कि वह भी यह कार्य करना चाहती है। मैनें कहा मुझे खाना बनाना नही आता अगर मै बना सकता तो मैं घर पर रुक जाता और तुम ऐसा कर सकती हो। । बच्चे अभी छोटे हैं, फिर भी तुम्हारी मर्जी। कल रात 11:30 बजे टीवी पर अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी की बातें सुनकर रक्तचाप बढ गया था और धडकन तेज हो गई थी। दोनों बच्चे भी देख रहे थे और उन्होंने सवालों की झडी लगा दी थी। जितना उनकी समझ में आ रहा था, उसी अनुसार सवाल कर रहे थे। पुलिस तो बुरे लोगों को पकडती है? अन्ना तो किसी से लडाई भी नहीं करते? खैर, अभी तो ऑफिस से ये पोस्ट लिखकर निकल रहा हूँ और शाम 5 बजे  प्रधानमंत्री निवास पर जाने का मन है। 

उर्वशी स्कूल से एक कविता सीख कर आई है आप भी सुनिये और लक्ष्य के लिये जो चीजें दिख रही हैं, सबकुछ अन्ना हो गया है। 



23 August 2011

पत्नी बच्चे भी अन्ना के समर्थक बन गये

अन्जू आमतौर पर व्रत-उपवास कम ही रखती है। कल जन्माष्टमी को उपवास रखा था। मैनें पूछा मन्दिर गई नहीं, पूजा की नहीं, कान्हा को झूला झुलाया नहीं, ये कैसा व्रत रखा है? उसने कहा आज मैनें अन्ना जी के समर्थन में व्रत रखा है और प्रभु से प्रार्थना कर रही हूँ कि इस बारे में जल्द से जल्द कोई सकारात्मक खबर मिले। सुबह बच्चों को भी अन्ना टोपी (अब गांधी टोपी का नाम बदल गया है) पहना दी। लेकिन बच्चे तो बच्चे हैं, उन्हें "मैं अन्ना हूँ" लिखी टोपी पहनकर स्कूल जाना पसन्द नहीं आया। हालांकि स्कूल में भी बच्चों को अन्ना जी के बारे में बताया जा रहा है और अन्जू भी  बच्चों को लगातार अन्ना के बारे में बताती है। जिस दिन घर के सामने से अन्ना के समर्थन में रैली निकल रही थी, उस दिन मैं ऑफिस में था। बडे उत्साह से मुझे फोन किया और रैली में भाग लेने की मंशा जाहिर की। तीन दिन से कह रही है कि अकेले जाते हो, एक दिन के लिये उसे भी बच्चों के साथ रामलीला ग्राऊंड जाना है।  

19 August 2011

क्या अन्ना दल के सदस्य भ्रष्ट हैं?

फेसबुक पर योगेश ने पूछा है कि 
क्या अन्ना, अन्ना के दल के सदस्यो, अन्ना के सर्मथको ने, कभी किसी को रिशवत दी या किसी से ली नही? क्या वो भ्रष्ट नही है?
 
ये तो वही बात हुई कि वही पहला पत्थर फेंके जिसने पाप ना किया हो। इस देश में जो रिश्वत नहीं देते उनके सरकारी कार्य हो पाने मुश्किल हैं। सरकारी विभाग में कर्मचारियों को भी आपसी कार्यों के लिये यह रिश्वतरुपी सेवाशुल्क देना पडता है। बहुत से सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत लेने के लिये मजबूर भी किया जाता है। 

अन्ना दल के सदस्य हों, कोई कर्मचारी, अफसर या कोई नेता या कोई और जिसपर भी आरोप हैं, उनकी जांच सीमित समय में पूरी हो, अपराध सिद्ध हो जाये तो जल्द से जल्द कठोरतम सजा हो, इसके लिये ही तो जनलोकपाल बिल की लडाई है। 

भारतीय मानवता पुरस्कार और रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित अमृतसर पंजाब में जन्मी किरण बेदी  DG के पद से स्वैच्छिक रिटायरमेंट लेकर समाजसेवा को अपनाया।  इनको रोककर इनके दो साल जूनियर को पदोन्नति दिया जाना भी भ्रष्टाचार का उदाहरण है।
 

रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित हरियाणा के हिसार में जन्में अरविंद केजरीवाल 2006 में इन्कम टैक्स विभाग में ज्वायंट कमीशनर के पद से इस्तिफा देकर समाजसेवी बन गये। उन्होंने आयकर विभाग में फैले भ्रष्टाचार ने ही इससे लडने को मजबूर किया। RTI यानि सूचना का अधिकार लाने में इनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।

रिश्वत लेना और रिश्वत देना दोनों कानूनन अपराध है। फिर भी इस देश में  बिना रिश्वत दिये कोई काम नहीं होता। कोई शिकायत करता है तो आरोपों की जांच नहीं होती और जांच होती है तो सजा नहीं होती।  जिन्हें रिश्वत देने और रिश्वत लेने को मजबूर किया जाता है, आज वही लोग अन्ना के समर्थन में नहीं अपने लिये खडे हुये हैं। वास्तव में जनता को आगे खडे होने वाला, नेतृत्व करने वाला कोई चाहिये, जो सरकार पर दबाव बना कर ऐसा कानून बनवा सके जिससे भ्रष्टाचार के आरोपों की सीमित समय में जांच हो और अपराधी को जल्द से जल्द सजा का प्रावधान हो।  

18 August 2011

अन्ना और गांधी

कोई अन्ना को गांधी बताने पर जुटा है और कोई तुलना करने में जी-जान लगाये है। गांधी-गांधी थे और अन्ना-अन्ना है। दोनों के समय, स्थिति और स्थान में फर्क है।  

आप ये कहना चाहते हैं कि  कृष्ण को भी राम की तरह वनवास काटना चाहिये था। राम कभी हँसे भी नहीं और कृष्ण हैं कि रासलीला करते बांसुरी बजाते और नाचते रहे। 

गांधी 16-08-47 को अन्धेरे कमरे में उपवासे बैठे थे,  अन्ना को भी बन्द कमरे में अनशन करना चाहिये। (आप समझते हैं कि इस तरीके से जनता को उनके आन्दोलन की जानकारी हो जायेगी या सरकार कोई नोटिस लेगी)

अन्ना ने राजघाट पर मीडिया और भीड के बीच में ध्यान किया। गांधी ऐसा नहीं करते थे, ये कैसा ध्यान है। (गांधी के समय में राजघाट जैसी पवित्र जगह नहीं थी। : ) किसी का राजघाट पर ध्यान करने को जी चाहा, मीडिया और जनता खुद जुटी थी, उन्हें देखने के लिये)

निकम्मी सरकार लाने वाले हम ही हैं तो क्या उनके गलत कार्यों और नीतियों के प्रति आवाज नहीं उठानी चाहिये और अगले चुनावों का इंतजार करना चाहिये। कहां से लायेंगें आप राजनीति में अच्छे आदमी। जिसके सिर पर डंडा रहेगा वही अच्छा रह सकता है।

आप अपनी कम्पनी में एक मैनेजर या दुकान पर मुनीम 5 साल के अनुबंध पर रख लेते हैं। कारोबार उसके सुपुर्द करते हैं, वह घपला या चोरी करता है तो क्या आप 5 साल अनुबंध के पूरा होने तक उससे कोई जवाब-तलब नहीं करेंगें। क्या आपको कोई हक नहीं है उससे हिसाब-किताब लेने का और सजा दिलवाने का। अच्छा तो यही है कि पहले ही उसकी सजा का प्रावधान किया जाये। अनुबंध में बताया जाये कि अगर कोई हेरा-फेरी की तो तुम्हारे साथ क्या हो सकता है।
मेरे विचार से सत्ता बुरे लोगों के हाथ में जाती है ऐसा नहीं है बल्कि सत्ता पाते ही लोग बुरे हो जाते हैं। आपको अदृश्य होने की शक्ति मिल जाये तो सोचियेगा, सबसे पहले कौन सा कार्य करेंगें। ईमानदारी से सोचियेगा क्या ये ख्याल आयेगा कि चलो किसी थके-हारे के पैर दबा दूं या पडोसी की पत्नी को छेडने का ख्याल पहले आयेगा या किसी की तिजोरी खोलने का।

15 June 2011

चलें हिमालय ताऊ महाराज के दर्शन करने

80 दिन हो गये हैं, ताऊ डाट इन पर कोई पोस्ट नहीं आयी है। 26 मार्च 2011 को रामप्यारे जी खबर दी थी कि ताऊ महाराज दंडकारण्य में रामप्यारी के साथ विश्राम के लिये गये हैं। हमें विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि ताऊजी अपनी ब्लॉगशक्तियां बढाने के लिये हिमालय में घोर तपस्या कर रहे हैं। हमारा मन भी आजकल ब्लॉगिंग में ज्यादा नहीं लग पा रहा है। ताऊ जी की पोस्ट पढ-पढ कर ही तो हमें कुछ लिखने के आईडिये आते थे। ताऊजी ने जिद लगा रखी है कि जबतक ब्लॉगशिव दर्शन नहीं देंगे, तबतक ताऊजी तपस्या में लीन रहेंगे। तो हमने सोचा कि चलो ताऊजी की पोस्ट ना सही, ताऊ जी के दर्शन ही कर आते हैं। मैं और जाट देवता आज हिमालय पर जा रहे हैं। ताऊजी के तपस्थल की पूरी जानकारी नहीं है, फिर भी बस दूर से ही एक बार ताऊ जी के दर्शनों की अभिलाषा पूरी हो जाये। आप शुभकामनायें दीजिये और आप भी ताऊ महाराज के दर्शन करना चाहते हैं तो स्वागत है हमारे साथ चलने के लिये।

07 June 2011

इन मास्टर जी को नमस्ते मत करना

कोयले का इंजन और आरक्षण आंदोलन की याद
दरवाजे से हवा आता है, खिडकियों से खुशबू आती है
स्कूल में दाखिले का पहला ही हफ्ता था। उस दिन शनिवार था और शनिवार को 12:20 वाली रेल नहीं आती थी। 11:15 वाली ट्रेन के लिये स्कूल से कुछ मिनट पहले ही छुट्टी लेकर मैं स्टेशन पर आ गया। इसके बाद रोहतक से साँपला जाने के लिये ट्रेन 03:50 पर ही थी। 11:15 हो चुके थे और गाडी आने ही वाली थी कि तभी गणित के मास्टरजी मेरे सामने आ गये। असल में हमारे स्कूल और रोहतक शहर के मुख्य बाजार के बीच में रेलवे स्टेशन है। और ज्यादातर लोग स्कूल और बाजार में आने-जाने के लिये स्टेशन और प्लेटफार्म के अन्दर से ही गुजरते थे। 
मैं दोस्तों की बताई बात (कि इन मास्टरजी को नमस्ते मत करना) भूल गया और मास्टरजी को नमस्ते फेंक मारी। मास्टरजी कुछ बोले नहीं बस मुझे हाथ से अपने पीछे आने का इशारा कर दिया। मैंनें तेजी से उनके साथ चलने की कोशिश की और पूछा कि हाँ मास्टर जी बोलिये क्या काम है? मास्टरजी बस हाथ से इशारा करते रहे और चलते रहे। वो बहुत तेजी से चल रहे थे और मुझे लगभग भागना पड रहा था। मेरे दिमाग में एक बात घूम रही थी कि मेरी ट्रेन छूटने वाली है। लेकिन मैं डर गया कि कहीं मास्टरजी गुस्सा ना हो जायें और शायद इन्हें कुछ कहना हो या काम हो। मैं उनसे पूछता रहा और वो इशारा करते हुये मुझे स्टेशन से काफी दूर ले आये थे। 
भिवानी स्टैण्ड पर आने के बाद मैनें मास्टर जी का हाथ पकड लिया और कहा मास्टर जी मेरी ट्रेन छूट जायेगी, बताईये क्या काम है, मुझे कहां लेकर जा रहे हैं? उन्होंने बस इतना कहा - "जाओ"। अब मैं भागा पूरी ताकत से स्टेशन की तरफ, लेकिन रेल छूट चुकी थी और साढे चार घंटे इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। सभी दोस्त भी जा चुके थे। पडा रहा वहीं स्टेशन पर और याद करता दोस्तों की दी हिदायत।

जब कोई दो छात्र साथ जा रहे होते थे तो मास्टर जी उनको धकियाते हुये उनके बीच से ही निकलते थे। हर महिने कक्षा से गैरहाजिर रहने वाले छात्रों पर 20-30 पैसे रोजाना के हिसाब से जुर्माना लगाया जाता था। मास्टर जी पहले दिन सबको बता देते कि किसपर कितना जुर्माना है और सभी खुले (छुट्टे) लेकर आयें। अगले दिन मास्टर जी एक कटोरी लेकर आते और हर बच्चे के सामने हाथ फैला कर निकलते। जिस छात्र को जितना जुर्माना लगाया गया है, वो कटोरी में डाल देता। 
उनके सजा देने के तरीके भी अलग ही थे। किसी छात्र की साईकिल पर बैठ जाते और छात्र से धक्के लगवाते। कभी-कभी तो साईकिल को किसी गड्डे या कांटों वाली जगह घुसा कर ही उतरते। एक छात्र पढाई में और शरीर से बहुत कमजोर था। हमारी कक्षा में सबसे छोटा और पतला भी था, वह उनके घर के नजदीक रहता था। उसकी जिम्मेदारी थी मास्टरजी का लोहे का गोला घर से स्टेडियम लाना और ले जाना। उस बेचारे का खुद का वजन 20-25 किलो था और 6-7 किलो का गोला उससे उठाना पडता था। सख्त आदेश था कि कहीं भी गोला जमीन पर नहीं रखना है और घर से दूरी थी ढाई-तीन किलोमीटर। उसे कहते थे तू मेरे हसीन पार्क में गुल्ली-डंडा क्यूं खेलता है? अब ये हसीन पार्क के बारे में भी सुन लीजिये आप।  मास्टर जी के घर में उनके कमरे  की खिडकी से एक मैदान नजर आता था। जहां लोग (महिलायें भी) शौचादि के लिये जाया करते थे, उसे मास्टरजी हसीन पार्क कहते थे। :):):)

मास्टर जी का पढाने का तरीका भी सबसे अलग था। उन्होंने कक्षा 6 से कक्षा 10 तक में कभी भी पढाते वक्त पुस्तक हाथ में नहीं ली। बस आते ही कहते थे फलाने पेज का फलाना सवाल और ब्लैकबोर्ड पर समझाना शुरु कर देते थे। हालांकि गणित बहुत बढिया तरीके से पढाते थे। बार-बार समझाते थे। किसी भी कक्षा का छात्र किसी भी समय, कहीं भी उनसे  मदद ले सकता था।

एक मजेदार बात और याद आ रही है। हमारी कक्षा में दो छात्र जो बडे घरों के थे, उन्हें रोजाना एक बडा जग देकर कहते इसमें 2 रुपये का दूध लेकर आओ। उस समय दूध का भाव 5-6 रुपये होता था, फिर भी एक तीन किलो के बर्तन में 300-400 ग्राम दूध मंगवाना??? किसी दूसरे छात्र से नहीं मंगवाते थे, बस उन्हीं दोनों बडे घर के छात्रों से, बेचारे दोनों को जाना पडता था। कभी-कभी दोनों गिलास छुपा कर ले जाते और कक्षा में घुसने से पहले जग में डालकर मास्टर जी को देते थे। लेकिन मास्टर जी को पता चल जाता था। दूसरे छात्र ही बता देते थे। मास्टर जी इस दूध के बर्तन को मेज पर लेकर बैठ जाते। जेब से आयोडेक्स मल्हम जैसी बेहद काली दवा जैसी चीज की एक शीशी निकालते और  थोडी दवाई घोल-घोल कर उसके ढक्कन से दूध पीते। दवाई मिला काला दूध उनके कपडों पर गिरता था, लगता था जैसे जानबूझ कर गिरा रहे हैं।

छात्रों को एक ही गाली देते थे - "हुश्श सडियल"। एक लडके का नाम दिनेश कुमार था, हम उसे D.K. कहते थे और मास्टर जी उसकी पदवी बढा कर उसे बोस D.K. कहते थे। एक बार का किस्सा याद आ रहा है। नवम्बर के उस दिन भारत-पाकिस्तान का कोई मैच था। सचिन उस समय क्रिकेट टीम में नये ही आये थे, शायद। गणित के मास्टर जी हमें छत पर खुले में बैठा कर हमारे तिमाही इम्तहान के पर्चे क्रिकेट सुनते हुये चैक कर रहे थे। रेडियो हमारी कक्षा के ही एक छात्र का था। कमेंट्री सुनते हुये बीच-बीच में पता नहीं किन चीजों से नाराज होने पर उन्होंने एक-एक करके कई छात्रों के पर्चे नीचे सडक पर फेंक दिये। जिस छात्र का पर्चा बाहर गिरता, वही छात्र दौड कर नीचे स्कूल से बाहर भागता और पूरी कक्षा हँसती। फिर रेडियो को हाथ मारा और रेडियो नीचे। पता लगा कि सचिन आऊट हो गया है। बाद में जब हमने अपने पर्चों में पाये मार्क्स देखे तो मजा ही आ गया। जिस छात्र ने कुल छ्ह नम्बर के सवाल ही हल किये थे उसके नम्बर 20 हैं और जिसने पूरे सवाल हल कर रखे थे उन्हें कुल 2 नम्बर मिले हैं। यानि जब सचिन ने छक्का लगाया तो 6 नम्बर दे दिये, चाहे सवाल 2 नम्बर का ही था।  
किस्से तो बहुत हैं जी, पर और भी गम हैं, जमाने में मुहब्बत के सिवा
किसी ढंग के ब्लॉग पर जाईये और कुछ अच्छी कहानी-कविता पढिये। क्या यहां फालतू में जमे बैठे हो।  

06 June 2011

रामदेव ने लाठी मारी : नारी ब्लॉग से एक दर्जन सवाल

मैं बाबा रामदेव का भक्त नहीं हूँ, ना कभी इनके दर्शन किये हैं, ना कभी इनके वीडियो देखे या सुनें हैं और कई बार कुछ मुद्दों पर कई बार इनकी आलोचना भी कर चुका हूँ। लेकिन कोई भी व्यक्ति मेरे विचार से किसी अच्छे कार्य के लिये खडा होता है, तो मेरा समर्थन उसके साथ है।
नारी ब्लॉग पर जनहित में जारी एक पोस्ट लिखी गई है। मैं लेखक/लेखिका से पूछना चाहता हूँ कि 
2> मैनें भी रजिस्ट्रेशन का फार्म भरा था। लेकिन ट्रस्ट ने पैसा देने का आश्वासन नहीं दिया तो मैंनें अनशन पर बैठना रद्द कर दिया।:)  शनिवार को फेसबुक पर सुबह 11:00 मैनें अपने मोबाईल से खींची फोटो भी प्रकाशित कर दी थी।
3> एक भी पुलिसवाला बताईये जिसे चोट लगी है। जिसने पत्थर खाये थे।
4> रामदेव जी चाहते थे कि उनका गला घोंटने की कोशिश की जाये, वाह!
5> जो सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ बोलते, लडते हैं, उन्हें ही क्रान्तिकारी कहा जाता है। कुछ कानून तो भगतसिंह और चन्द्रशेखर को भी तोडने पडे होंगें।
6> सुबह मैदान में एन्ट्री दिल्ली पुलिस की चैकिंग और निगरानी में हो रही थी, तो पुलिस ने उसी समय क्यों नहीं रोका कि 5000 लोग पूरे हो गये हैं। इतने की ही परमिशन है। 
7> कलमाडी भी पढे-लिखे हैं, तो क्या इनको गुरु मानें?
8> पार्टियां पैसे देकर रैली करवाती रही हैं, लेकिन अन्ना, रामदेव जैसे लोगों के साथ जनता खुद होती है।
9> क्या आपने वहां आये लोगों के प्रमाणपत्र जारी किये थे कि जो वहां जनता इकट्ठी थी सब अनपढ और कम-अक्ल थी?

10> परमिशन तीन दिन के लिये थी ना कि एक दिन के लिये। खुद पुलिस आयुक्त बी के गुप्ता ने कहा है कि उन्हें दी गई इजाजत तुरन्त प्रभाव से रद्द की जाती है। तुरन्त यानि रात 12 बजे ही क्यों, दिन में क्यों नहीं?
11> आपका मन द्रवित है चोटें खाने वालों के लिये, लेकिन आपके कहे अनुसार लाठीचार्ज तो वहां हुआ नहीं, तो कितने पुलिसवाले हैं जो चोटिल हैं?
12> ये बात हजम नहीं हो रही कि, बाबा रामदेव जी को भी नारायणदत्त तिवारी जैसों के संरक्षण की जरुरत है।:) 

05 June 2011

दरवाजे से हवा आता है, खिडकियों से खुशबू आती है

श्री राज भाटिया जी, आपने सही याद किया, यह वही स्टेशन और शमशान के पास वाला स्कूल है। हमने सुना था कि प्रसिद्ध फिल्म निर्माता-निर्देशक सुभाष घई भी इसी स्कूल में पढते थे। आपकी बचपन की किसी फोटो में क्या वो भी आपके साथ हैं। 

नये स्कूल का, नयी कक्षा का, नयी किताबों का और नये दोस्त बनाने का जितना चाव था, उतना ही चाव नये अध्यापकों को जानने और समझने का भी था। आज सभी की तो याद नही है, फिर भी एक-दो का जिक्र कर रहा हूँ। किसी भी अध्यापक का नाम नहीं बताऊंगा, माफ कीजियेगा।

विज्ञान के अध्यापक तो पढाते-पढाते ही सो जाते थे और उनके मुँह से लार टपकती थी। इसी कारण जब वो पढाने के लिये पुस्तक मांगते तो कोई भी छात्र उन्हें पुस्तक नहीं देना चाहता था। हमने उनका नाम रालू रख दिया। संस्कृत के अध्यापक का नाम रखा गया हाडल, उनके पतले शरीर के कारण और इतिहास के अध्यापक का नाम रखा गया थूकल, उनकी थूक बोलते-बोलते भी गिरती थी।

गूगल से साभार
हिन्दी के अध्यापक थे मूच्छल।  छोटे कद के, 50 के आसपास की उम्र, चेहरे पर तेज, चश्मा, गोरे-चिट्टे, एकदम फिटनेस शरीर, कुश्ती के खिलाडी, रोजाना व्यायाम भी करते होंगें शायद। छोटी ऊपर की तरफ मुडी हुई लेकिन भरी-भरी मूँछे थी उनकी। जिन्हें बन्द मुट्ठी से संवारते थे।  ये कक्षा में आते ही किसी छात्र को अपनी साईकिल पर रखे थैले को लाने के लिये भेजते। थैले में से टिफिन निकालते, उसको हमें दिखाते हुये खोलते, उसमें एक छोटी डिब्बी होती थी, उसमें से एक छोटी सी पॉलीथिन की थैली को निकालकर, टिफिन वापिस थैले के अन्दर और फिर थैला वापिस साईकिल पर भिजवा देते। उस थैली में कुछ 5-7 बादाम की गिरियां होती थी, उन्हें धीरे-धीरे कुतर-कुतर कर खाते हुये हमें पढाते थे। कक्षा के पहले ही दिन उन्होंने हमारी नौवीं कक्षा से क,ख,ग लिखने और सुनाने को कहा। लिख तो लिया एक-दो छात्र ने पर एक भी छात्र ठीक से उच्चारित नहीं कर पाया। उन्होंने उसी दिन उच्चारण की गलतियों के हिसाब से सभी छात्रों की चार पंक्तियां विभक्त कर दी। जिनके नाम रखे गये कच्ची कक्षा, पक्की कक्षा, पहली और दूसरी। तीन महिनों तक हमें उनकी कक्षा में इसी अनुसार बैठना पडा था। 

अब बताता हूँ गणित के अध्यापक के बारे में जिनके बारे में जानकर आप दांतों तले ऊंगली दबा लेंगे। इनके बारे में मेरे दोस्तों ने बताया कि इन्हें कभी नमस्ते मत करना। कारण पूछने पर किसी ने कुछ नहीं बताया। (लेकिन मैं आपको बताऊंगा बादमें) इनकी शख्सियत कुछ रहस्यमयी सी थी। दूसरे अध्यापकों से बात कम ही करते थे, उनके आसपास खडे भी नहीं होते थे। कभी हँसते नहीं देखा, हमेशा कुछ बुदबुदाते हुये से, बहुत तेज कदमों से चलते थे।  उम्र लगभग 45 वर्ष, लम्बा कद, सुगठित मजबूत शरीर, काला रंग, एक आँख में कुछ डिफैक्ट, गंजा रहते थे।  एक लोहे का गोला (वजन 6.250 kgms शायद) जिसपर जंजीर लगी थी को घुमाकर फेंकते हुये इन्हें स्टेडियम में देखा था। कोई इस खेल का नाम बताये तो आभार होगा। कुछ-कुछ माईक टायसन या घटोत्कच जैसे, कई छोटे बच्चे तो इनसे डर जाते थे और कुछ बडे भी इनके सामने आने से कतराते थे। खुद कभी नहीं हँसते थे, लेकिन छात्रों और अन्य अध्यापकों को उनकी उपस्थिति और हरकतें खूब हँसाती थी। गणित के अध्यापक होने के बावजूद शेरों-शायरी करते थे। कक्षा में आते ही कहते थे-"दरवाजे बन्द कर दो, खिडकियां खोल दो"। दूसरे सभी अध्यापक खिडकियां बन्द करवा देते थे। क्योंकि खिडकियों के दूसरी तरफ महिला बी एड कॉलिज था। :) :) :) इनके आते ही कक्षा में एक बार तो हंसी की चीख-चिल्लाहट सी मच जाती थी। कहते थे दरवाजे से हवा आता है (जी हाँ आता है आती नहीं), खिडकियों से खूशबू आती है।

जैसे जर्मनी निवासी को जर्मन, मुम्बई निवासी को मुम्बईकर वैसे ही साँपला निवासियों को साँपलिया कहते हैं। लेकिन ये मास्टरजी हमें स्नेकला (Snakeला) कहते थे। गुणा को गुण्डा बोलते थे। हर साल अप्रैल में क्रीम या सफेद रंग के एक ही कपडे से एक पैंट, एक शर्ट और एक कुर्ता पाजामा बनवाते थे। जिस दिन नये सफेद जूते, नयी सफेद टोपी और एक घडी भी 20रुपये वाली डिजिटल नयी पहनकर आते थे, उस दिन स्कूल के करीबन सारे छात्र उनके पीछे-पीछे चलने की कोशिश करते थे। कोई-कोई तो उन्हें बताशे में मकोडा कहता था। शर्ट और कुर्ते पर बायीं तरफ लाल रंग के बालपैन से S लिखकर रखते थे। इसका मतलब कहते थे "शक्ति"। कई दिनों तक बिना धोये इन कपडों को पहनते रहते और जब मैले होकर सड जाते तो जूते-टोपी समेत सभी कपडों को लाल रंग से रंगवा देते। हा-हा-हा

पोस्ट लम्बी होती जा रही है, इन मास्टरजी के बारे में बहुत कुछ बाकी है, अगली पूरी पोस्ट इन्हीं के मजेदार और अनसुने किस्सों पर होगी। क्या हुआ जब मैनें इन मास्टर जी को पहली बार नमस्ते की???

03 June 2011

कोयले का इंजन और आरक्षण आंदोलन की याद

आठवीं कक्षा का परिणाम आने से पहले ही सोच लिया था कि नौवीं में दाखिला रोहतक के वैश्य स्कूल में लेना है। अन्दर ही अन्दर सोच-सोच कर खुश हुआ करता था कि ट्रेन से रोहतक शहर में जाकर पढाई करुंगा। आस-पडोस के कितने बच्चे रोहतक पढते हैं, कितना मजा करते हैं। सब अपने स्कूल की, ट्रेन-बस के सफर की बातें बताते थे तो अपने अन्दर एक हीनता महसूस होती थी। आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद पापा को मेरी जिद के आगे झुकना पडा और मुझे रोहतक के वैश्य पब्लिक स्कूल में दाखिल करवाने ले गये। वहां जाकर मेरी खुशी मेरे चेहरे से झलक रही थी और पापा के चेहरे से मजबूरी और बेबसी स्कूल की फीस और अन्य खर्चा देखकर। 

एडमिशन फार्म आदि भरने के बाद फीस भरने से पहले मैनें कहा कि पहले मैं नौवीं कक्षा में जाकर अपने दोस्तों से मिलना चाहता हूँ कि किस सेक्शन में हैं। मैं भी उसी सेक्शन में दाखिला कराऊंगा। वहां सांपला से आने वाले बच्चों का नाम बताने पर एक भी सांपला से आने वाला छात्र नहीं था। तभी किसी ने बताया कि बराबर वाली इमारत वैश्य हाई स्कूल है, शायद सांपला के छात्र उस विद्यालय में हों। हम तुरन्त बाहर निकले और वैश्य हाई स्कूल में दाखिला लिया। मेरे सभी दोस्त 'सी' सेक्शन में थे तो मेरा दाखिला भी 'सी' सेक्शन में करवाया गया। नौवीं कक्षा के 'सी' सेक्शन में जगह ना होते हुये भी 'सी' सेक्शन में दाखिला दिलाने में मदद की मेरे कक्षाध्यापक श्री प्रेमचन्द गुप्ता (P.C. Gupta) जी ने, जो मेरे पापा के जानने वाले निकले। असल में श्री पी सी गुप्ता जी के मामाजी हमारे पडोसी हैं और पापा जी से उनकी मित्रता सांपला में अपने मामा जी के घर आने-जाने से हुई थी। श्री पी सी गुप्ता जी की कक्षा में पढते हुये इस बात का खूब फायदा उठाया मैनें।  सुबह 7:30 बजे से 1:50 बजे तक कक्षायें लगती थी, पर 12:20 बजे के बाद रोहतक से सांपला आने वाली गाडी शाम 3:50 पर ही थी। जब भी जल्दी (12:20 वाली रेल से) घर जाने का मन होता उनसे ही छुट्टी लेता था।

गूगल से साभार
कुछ ही दिनों में रोहतक जाकर पढने की खुशियां ठंडी होने लगी थी। जब सुबह 5:00 बजे उठकर तैयार होना होता था और 6:00 बजे की ट्रेन पकडनी होती थी। वैसे तो 1991 में ज्यादातर रेलों में डीजल से चलने वाले इंजन ही थे पर इस पैसेंजर में कोयले वाला इंजन था।  इस ट्रेन की खिडकियां भी लकडी की होती थी। आमतौर पर रेल में ज्यादा यात्री नहीं होते थे और हमें खिडकी वाली सीट मिल जाती थी, लेकिन इंजन से कोयले के बहुत छोटे-छोटे कण और राख उड-उडकर खिडकी से अन्दर आते थे और हमारे कपडों पर गिरते थे। कभी-कभी तो कोई कण आँख में भी गिर जाता था, लेकिन खिडकी पर बैठ कर सुबह की ठंडी हवा खाने का मोह और लहलहाते खेत और खेतों के अन्दर रोज (नीलगाय) के झुंड देखना मुझे अच्छा लगता था।  तो हम सांपला के 10-12 छात्र 3:45 बजे तक स्कूल में ही रहते थे। दो बार लंच करते, अपना होमवर्क निपटाते, खेलते-कूदते, लडाई-झगडा करते, ब्लैक-बोर्ड पर चित्रकारी करते रहते। एक अलमारी हमें स्कूल में हमारा सामान रखने के लिये दे दी गई, जिसमें हम अपना होमवर्क निपटा कर बस्ता और किताबें भी वहीं रख देते थे।

कुछ सम्पन्न घरों के छात्रों ने रेल और बस दोनों पास (मासिक टिकट) बनवा रखे थे। कभी-कभी उनके साथ मैं भी बस में आने लगा। टिकट के पैसे तो मेरे पास होते ही नहीं थे और कंडक्टर भी कुछ नहीं पूछते थे। एक बार सांपला आने से 5-6 किलोमीटर पहले चैकिंग शुरु हुई। टिकट चैकर्स का 3-4 लोगों का स्टाफ टिकट चैक कर रहा था, मुझे पसीना आने लगा। एक मित्र ने अपना पास चैक करवा कर मुझे पकडाना चाहा कि यही दिखा देना, लेकिन मैं समझ ही नहीं पाया और टिकट निरिक्षक मेरे पास आ गये। मैनें कहा कि मेरे पास टिकट भी नहीं है और पैसे भी नहीं है तो उन्होंने मुझे बस से वहीं उतार दिया। तभी मेरे 5-6 मित्र (जो सभी मासिक टिकट धारक थे) भी मेरे साथ ही वहीं पर उतर गये। कहा कि तू इतनी दूर से अकेला कैसे आयेगा, हम भी तेरे साथ ही चलेंगे और उसदिन हम सब 5-6 किलोमीटर पैदल चलकर ही घर पहुँचे। एक बार और ऐसे ही 10-12 किलोमीटर पैदल चलना पडा था, जब वी पी सिंह प्रधानमंत्री थे और आरक्षण आंदोलन की आग फैली थी। रोहतक और सांपला के बीच में तीन स्टेशन हैं, अस्थल बोहर, खरावड और ईस्माइला हरियाणा। रोहतक से 3:30 वाली रेल से आते वक्त खरावड में उपद्रवियों ने रेल को रोक दिया। इंजन में आग लगा दी गई और पटरियां उखाड दी गई तो हम सांपला तक पैदल ही आये थे। 

28 May 2011

भारत का भ्रष्टाचार एक नजर में


मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !
प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !
महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !
डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !
दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !
चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !
वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !
खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की, जय बोलो बईमान की !
बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !
मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !
न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !
पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !
नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की !