घर की साफ-सफाई करते हुये कुछ पुरानी पत्रिकायें भी निकल आई। कम्पयूटर संचार सूचना, सरिता, मनोहर कहानियां, नंदन, सरस सलिल आदि। मनोहर कहानियां देखकर मैं खुश हो गया। बहुत छोटा था तो चंपक और लोटपोट पढता था, फिर नंदन और सरस सलिल पढते हुये बडा हुआ बाद में मनोहर कहानियां का दीवाना हो गया। कॉमिक्स और पत्रिकाओं का इतना शौक होता था कि सारी जेब खर्ची इन्हीं पर जाती थी। मामा-बुआ के घर जब छुट्टियां मनाने या किसी रिश्तेदार के घर जाता तो वहां जो भी पत्रिका दिख जाये अपने साथ ले आता था (कई बार चोरी से भी) :-) ज्यादातर पुरानी किताबों की दुकान या कबाडी से खरीदारी करता। दसवीं कक्षा तक आते-आते मेरे पास अच्छा खासा भण्डार हो गया था। कॉमिक्स और पत्रिकाओं का और एक दिन मैं घर के बाहर ही किताबों की दुकान लगाकर बैठ गया। एक खोखा (गुमटी) बनवाई, इसी में कॉमिक्स बेचते-बेचते पतंग, पान, बीडी-सिगरेट, गुटखा कब बेचने लगा पता ही नहीं चला।
अरे मनोहर कहानियां की बात करते-करते कहां पहुंच गई। खैर, 17-18 वर्ष की आयु में मनोहर कहानियां मेरी पसन्दीदा पत्रिका बनी थी इसमें छपी एक लेख श्रंखला के कारण जो आधारित थी अंग्रेजो के जमाने में विलियम हेनरी स्लीमैन द्वारा लिखे भारत के ठगों के इतिहास पर। मैं आसपास के शहरों में कबाडियों और पुरानी किताबों वालों से ढूंढकर मनोहर कहानियां खरीदता था। मेरे पास इसका करीबन 100-125 इशूज का अच्छा खासा खजाना हो गया था। एक दिवाली पर साफ-सफाई करते वक्त सुबह-सुबह मम्मी ने पूछा कि एक गत्ते के बक्से में बहुत सारी किताबें पडी हैं, इन्हें कबाडी को बेच दें क्या? मैनें नींद में कहा - बेच दो। कुछ महिनों बाद ध्यान आया कि अरे ये तो मेरा खजाना लुट गया। अब पछताय होत क्या, जब चिडिया चुग गई खेत।
मनोहर कहानियां और सत्यकथा का प्रकाशन पहले (1944 से) माया पब्लिकेशन करती थी। शायद 2003 या 2004 के बाद किसी कारण से मनोहर कहानियां बंद हो गई थी। अब ये दोनों डायमंड पॉकेट बुक्स के खाते में हैं और डायमंड ने इनको मधुर कथायें टाईप का सी-ग्रेड बना दिया है। पता नही वो लेखक भी कहां गये, जिन्होंने इस पत्रिका को अपने समय की सबसे ज्यादा बिकने वाली मासिक पत्रिका बनाया था।
आज नेट पर सर्च करने पर माया पब्लिकेशन के बारे में कुछ पता नहीं लग पाया और कोई भी पुराना प्रकाशन इस पत्रिका का नहीं मिला। अलबत्ता श्री संजीत त्रिपाठी जी का यह आलेख मिला जिस पर श्री सागर नाहर जी कि यह टिप्पणी बहुत सही और सच्ची है :-
माया पब्लिकेशन के समय में इसमें कभी भी ऐसे लेख, कहानी या भाषा नहीं होते थे कि परिवार से छुपकर पढना पडता। आज मनोहर कहानियां का नाम चटखारे लेने वाले लेखों की पत्रिकाओं में गिना जाता है तो अच्छा नहीं लग रहा।
मनोहर कहानी में प्रकाशित होने वाले एक खास लेखक की खास शैली में लिखी कहानी मुझे बहुत पसंद थी .. अभी लेखक का नाम याद नहीं आ रहा है .. उस कहानी को छोडकर बाकी अपराध कथाओं को पढने में मेरा मन नहीं लगा कभी !!
ReplyDeleteबड़ी पुरानी याद दिला दी...
ReplyDeleteदीवाली मंगलमय हो अमित !
हमने भी भतेरी पढी, मुझे तो भुत प्रेत की फ़ंतासियाँ, अघोर कथाए पसंद थी। रही बात छिपाने की तो भाई हम तो चौड़े-धाड़े पढा करते। :)
ReplyDeleteदीवाली की राम राम
टाबरां नै प्यार, दीवाली की फ़ूलझड़ी के साथ
आपकी ये पोस्ट पढ़ के बचपन याद आ गया ........पता नहीं कैसे बचपन में ही पढने का शौक लग गया था मुझे .........स्टोरी बुक्स मिलती नहीं थी मुझे ....स्कूल में अच्छी खासी library थी पर किस काम की जब बच्चों को किताबें देते ही नहीं .........एक बार याद है , library से सिंदबाद जहाजी की कहानियां स्कूल से ले कर आया ........ऊपर छत पे अपनी science की बुक में छुपा कर पढ़ रहा था ....तभी मां ने छापा मारा ....ढूंढती हुई आयी .........अच्छा कहानी की किताब .....कोर्स की किताब नहीं पढ़ी जाती ...और वो किताब छीन ली गयी मुझसे .........आज मैं अपनी मां से कहता हूँ ........कितनी बड़ी मूर्खता की थी उन्होंने ........और आज मैं अपने बच्चों से कहता हूँ ....अबे पढ़ लिया करो कुछ .....कोर्स के अलावा भी .........खूब books और magazines खरीदते हैं वो .......चेतन भगत के दीवाने हैं .......ऐसी हलकी फुलकी reading से ही serious reading की आदत पड़ती है ....अच्छी पोस्ट ....मज़ा आया पढ़ के ..........दीवाली की शुभ कामनाएं
ReplyDeleteसबके सामने मनोहर कहानी पढ़ने की हिम्मत कभी नहीं पड़ी।
ReplyDeleteशुभ दीपावली,
ReplyDeleteमुट्ठी गंज, इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली इन पत्रिकाओं में मेरे कार्टून भी यदाकदा छपा करते थे. 1980 के आसपास की बात है. एक अन्य कार्टूनिस्ट रंजीत के कार्टून निरंतर छपते थे इनमें. मुझे रंजीत का रचनाकर्म अच्छा लगता था. आज बहुत सी पत्रिकाएं या तो बंद हो गई हैं या उनका क्लेवर इतना बदल गया है कि लगता ही नहीं कि ये वही पत्रिकाएं हैं जिनके साथ-साथ हम बड़े हुए थे. बहुत सी दूसरी चीज़ों ने इनकी जगह ले ली है, आज. दुखद लगता है.
ReplyDeleteभाई, हमारे यहाँ ये अलाऊड थी ही नहीं लेकिन कहीं आते जाते जुगाड़ भिड़ाकर पढ़ ही लेते थे और ज्यादा मजेदार कभी नहीं लगी, नाटकीयता बहुत लगती थी। हाँ, विलियम स्लीमैन वाली सीरिज़ जिसमें रुमाल के एक कोने में सिक्का लपेट कर लूट पाट करने वाले पिंडारियों की कथायें थीं वे जरूर रोमांचित करती थी।
ReplyDeleteजबसे छप रही तबसे ’अहा जिंदगी’ अपनी पसंदीदा पत्रिका है हालाँकि अब उसमें भी शुरुआती तेवर नहीं रहे।
गैर हाजिरी लंबी रही, शिकायत नोट की जाये बंधु।
अरे यार, ये क्या हो रहा है? तीन चार ब्लॉग्स पर कमेंट करने के बाद दोबारा अगले दिन चैक करता हूँ तो कमेंट गायब मिलता है।
ReplyDeleteकल कमेंट किया था यहाँ, ब्लॉगर को पता नहीं क्या दुश्मनी हो गई है यार..।
मै भी बहुत चाव से पढा करती थी। शुभकामनायें।
ReplyDeletemai apse sahmat hoo .mai bhi bahut padhta tha.
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