एक रात कुछ लोगों ने ज्यादा शराब पी ली। पूर्णिमा की रात थी, बडी सुंदर रात थी। चांदनी बरसती थी और वे मस्त नशे में झूम रहे थे। मस्ती में रात का सौंदर्य और भी हजार गुना हो गया था। एक पियक्कड ने कहा कि चलो आज, नौका-विहार को चलें। ऐसी प्यारी रात, ऐसा चांद न कभी देखा, न कभी सुना! यह रात सोने जैसी नहीं है। यह रात तो आज नाव में विहार करने जैसी है। और भी दीवानों को जंचा। वे सभी गए नदी पर। मांझी अपनी नाव, बांध कर घर जा चुके थे। उन्होंने सुंदर सी नाव चुनी, उस नाव में सवार हुए, पतवार, उठायी खेना शुरु किया और रात देर तक नाव को खेते रहे, खेते रहे...। फिर भोर होने के करीब आ गई। ठंडी हवाएं चलीं। ठंडी हवाओं ने थोड़ा सा नशा कम कया। उन पियक्कडों में से एक ने कहा, "न मालूम कतनी दूर निकल आए हैं, रात भर नाव खेई है। अब लौटने का समय हो गया। कोई उतरे और जरा देख ले कि हम किस दिशा में चले आए हैं क्योंकि हम तो नशे में थे। हमें पता नहीं हम कहां पहुंच गए हैं, किस दिशा में आ गए हैं, अब घर वापस लौटना है। इसलिये कोई उतरे किनारे पर, जरा देखे कि हम कहां हैं, अगर समझ में न आ सके तो पूछे किसी से कि हम उत्तर चले आए, कि पूरब चले आए, कि पश्चिम चले आए, कि हम अंततः कहां आ गए हैं।
एक आदमी उतरा और उतर कर खिलखिला कर हंसने लगा। यूं खिलखिलाने लगा कि बाकि लोग समझे कि पागल हो गए हो! उसके खिलखिलाहट ने उनका नशा और भी उतार दिया। पूछा उससे कि बात क्या है हंसने की। वह कुछ कहे न। उसे हंसी ऐसी आ रही है कि अपने पेट को पकड़े। दूसरा उतरा; वह भी हंसने लगा। तीसरा उतरा; वह भी हंसने लगा। वे सभी उतर आए और उस घाट पर भीड़ लग गई। क्योंकि वे सभी हंस रहे थे। भीड़ ने पूछा कि बात क्या है? बामुश्किल एक ने कहा, 'बात यह है कि रात हम नौका-विहार को निकले थे। बडी प्यारी रात थी। रात भर हमने पतवार चलाई। हम थक गए, हम पसीना-पसीना हो गए। और अब उतर कर हमने देखा कि हम नाव को किनारे से खोलना ही भूल गए थे। यह रात भर कि यात्रा बिल्कुल व्यर्थ गई; हम जहां हैं, यहीं थे, रात भर यहीं रहे। पतवार, जोर से चलाते थे तो नाव हिलती थी। हम सोचते थे यात्रा हो रही है। ऐसे ही लोग बंधे हैं, होश में नहीं हैं मूर्छा में हैं और मूर्छा में तुम जिसको भी पकड़ लोगे वही तुम्हारे लिए खूंटा हो जाएगा। उसके आस-पास ही तुम चक्कर काटते रहोगे।
लोग मंदिरों में परिक्रमा कर रहे हैं। खूंटों के चक्कर काट रहे हैं, लोग काबा जा रहे हैं, काशी जा रहे हैं, गंगा जा रहे हैं, कैलाश जा रहे हैं, गिरनार जा रहे हैं, खूंटों की पूजा चल रही है। किसी को इस बात की फिकर नहीं कि सदियां बीत गई, नाव चलाते-चलाते थक गए, मगर पहुंचे कहां? पहुंचने की सुध-बुध ही नहीं है।
यह पंक्तियां "बहुतेरे हैं घाट" से साभार ली गई है। अगर ओशो इन्ट्रनेशनल फाऊण्डेशन या किसी को आपत्ति है तो क्षमायाचना सहित हटा दी जायेंगी।
तभी तो हम किसी खूंटे से नही बंधे,अपने मन ओर आत्मा को ही नाव बना दिया, जहां चाहो चलो, मन की सुनी ओर आत्मा की मानी, बहुत सुंदर विचार जी धन्यवाद
ReplyDeleteआज तो गहरा डोज दे दिया ज्ञान का | आभार |
ReplyDeleteखूँटे से बँध कर नाव खे रहे हैं, यही निष्कर्ष होने वाला है।
ReplyDeleteविचारणीय ..
ReplyDeleteबेह्तरीन सोचने को मजबूर करती पोस्ट्।
ReplyDeleteबात विचार करने की है , किन्तु सवाल ये है की कितने लोगों को जाने की इच्छा है, और कितने लोगों को पता है की जाना कहा है, असल में तो कोई कही जाना ही नहीं चाहता है सब ने तो खुद को ही खूटे से बांध रखा है ताकि कही जा ही ना सके |
ReplyDeleteउत्तम विचार। खूंटे बहुत हैं, और उनसे बंधने के इच्छुक और भी ज्यादा।
ReplyDeleteयह कहीं ना पहुँचने वाली बात गर समझ जाए इंसान तो...
ReplyDeleteबहुत सुंदर विचार
ReplyDeleteसही बात, जितना ज्यादा दौड़ रहे हैं उतना ज्यादा वहीं हैं! :-(
ReplyDeleteयह बढ़िया रही भैया ...शुभकामनायें !
ReplyDeleteब्लोगवाणी संचालकों को एक पत्र , एक अनुरोध के साथ - सतीश सक्सेना
सुन्दर विचारणीय सन्देश देती प[ओस्ट के लिये बधाई। आशीर्वाद।
ReplyDeleteक्या बात है। बहुत सटीक वृत्तांत है।
ReplyDeleteअच्छे - प्रेरक विचार । शिक्षाप्रद भी । अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । पढ़िए "खबरों की दुनियाँ"
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख है
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट!
ReplyDeleteसदियां बीत गई, नाव चलाते-चलाते थक गए, मगर पहुंचे कहां? पहुंचने की सुध-बुध ही नहीं है। ...... बिलकुल सटीक बात कही है आपने. आपका या पोस्ट बहुत ही अच्छा लगा.
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