अन्तर सोहिल |
वही दिन हैं और वही रात है। रोज नया साल आता है मेरे लिये तो और रोज खुद को शुभकामनायें देता हूँ।
पाँच सवाल जो खुद से ही कर रहा हूँ :-
1> यहां आभासी संसार में रिश्ते जोड रहा हूँ। क्या मेरे भाई-बहन से, नातेदारों से, पुराने दोस्तों से पडोसियों से अपने रिश्तों को सहेज कर रख पाया हूँ?
2> यहां आभासी संसार में नम्रता दिखा रहा हूँ। क्या अपने माता-पिता और बडे-बुजुर्गों को भी सम्मान दे रहा हूँ या उनके थोडा सा मशविरा देने पर ही यह जवाब देता हूं कि - अपना ज्ञान अपने पास रखिये, मेरे भेजे में भी बुद्धि है।
3> ब्लॉगिंग और पोस्ट पढने में जितना समय दे रहा हूँ। क्या पत्नी, बच्चों और माता-पिता को जितना समय देना चाहिये, उसमें कटौती तो नहीं हो गई है।
4> यहां पोस्ट में बातें बना-बना कर लिखता हूँ और दुनिया को सुधारने की बातें करता हूँ। क्या मेरे बच्चे मेरे उपेक्षित व्यवहार के कारण कुरकुरे और अंकल चिप्स खाते हुये, टीवी में शिनचैन आदि देखकर अपनी सेहत और पढाई का नुकसान तो नहीं कर रहे हैं?
5> ऑफिस में कार्य बाकि तो नहीं छोड रहा हूँ। पूरा दिन नेट भी तो ऑफिस का ही प्रयोग करता हूँ।
हर साल नया साल आता है, लेकिन क्या सचमुच? सभी बधाईयां देने में लगे हैं। आशा बंधाई जाती है कि इस बार आप ज्यादा सुखी, खुश और सफल रहें। लेकिन क्या सचमुच 1 जनवरी का दिन कुछ अलग होता है। मेरे देखे कुछ अलग नहीं होता, अलग होता है तो केवल भाव (मन के विचार)। वही दिन होता है और वैसी ही शाम होती है। बस 2-4 दिन मन के भाव बदल जाते हैं और सबकुछ नया-नया सा लगने लगता है। यही भाव तो दुख और खुशी देता है। लोग चिल्लाते रहते हैं कलयुग है भाई। लेकिन सतयुग कौन सा था। उस युग में भी अबलाओं का हरण होता था। भाई-भाई तब भी जर-जोरु-जमीन के लिये लडते थे। एक-दूसरे की सम्पदा हथियाने के लिये युद्ध होते थे। मासूम प्रजा तब भी दुखी थी। दुख-सुख तो जिन्दगी में ऐसे ही आते रहेंगे। हर कोई आस बंधाता है कि नववर्ष आपके लिये खुशियां लेकर आये। आप बताईये ऐसा हो सकता है जिन्दगी में केवल खुशियां ही खुशियां हों। क्या कभी किसी के साथ ऐसा हुआ है? मेरे देखे तो ऐसा होना नामुमकिन है। सभी धर्मों में हर कोई अपने इष्ट को ही देख ले क्या उनके जीवन में हमेशा खुशियां रही हैं?
बडे-बूढे लोग कहते हैं कि हमारे जमाने में घी 1 रुपये किलो था। चावल आठ आने का पसेरी था। जमाना सस्ता था। लेकिन ये नहीं बताते कि उस समय आम आदमी क्या कमा पाता था साल भर में। क्या दो रुपये की मजूरी भी कर पाता था महिने में। सभी आज महंगाई मार गई गाने में लगे हैं। एक बार आराम से बैठ कर सोचियेगा, ऐसा कौन सा जमाना था जिसमें महंगाई नहीं थी। राजा-महाराजाओं के जमाने से लेकर, अंग्रेजों के शासन तक और प्रेमचन्द की कहानियों से लेकर आज तक क्या आम आदमी महंगाई का रोना रोता नहीं आया है? ये तो ऐसे ही चलेगा जी। कुछ नहीं बदला है और कुछ नहीं बदलेगा। वही दिन हैं और वही रात है। आप वेल्ले बैठे हो तो नववर्ष पर लिखी मेरी 01 जनवरी 2009 की पोस्ट भी देख लो जी।
अपने तो दिमाग में आजकल कवि सम्मेलन चल रहा है जी और अंजू के मन में प्याज चल रहे हैं। 15 दिन हो गये हैं प्याज खाये हुये। प्यार से काम चला रहे हैं। दादाजी थे तबतक तो घर में कभी प्याज भी नहीं आई और अब लहसुन भी। पिताजी को लहसुन के बारे में छुपाना पडता है। पता लग जाये तो सब्जी की कटोरी थाली से बाहर हो जाती है। काफी दिनों पहले कि लहसुन बची पडी थी। एक-एक कली सब्जी में डाल लेते हैं।
कल बातों-बातों में अन्जू को कह दिया कि आजकल लहसुन 400 रुपये किलो है। उसने तुरन्त पूछा लाये क्या भाव थे मैनें कहा- 20रुपये की 250ग्राम लाया था। बोली एक लहसुन बची है, बेच दो।
कवि सम्मेलन में आने के लिये श्याले साहब (इस शब्द से सम्बन्धित पोस्ट, श्री प्रवीण पाण्डेय जी की) को भी फोन करके निमन्त्रण दिया है। अन्जू कवि सम्मेलन के आयोजन से ज्यादा खुश इस बात से है कि नये साल के पहले दिन उनका भाई से मिलन होगा। सपना देखती है कि भाई फल-मिठाई की बजाये प्याज लेकर आया है। और मम्मी आस-पडोस में खुश होकर प्याज बांट रही हैं।
मुझे तो डर लग रहा है कि कहीं अलबेला जी या यौगेन्द्र मौदगिल जी फूल माला के बदले अपना सम्मान प्याज से करने के लिये ना कह दें :-)
मेरे विचार से फत्तू के बजाय फतूआईन (अन्जू) से आपका कोटा पूरा हो गया होगा। नहीं हुआ है तो ये फत्तू का पुराना किस्सा भी ले लो जी, बोनस में नया साल है ना :
एक दिन रलदू चौधरी घर महै बैठा फैशन टी वी (FTV) देखै था। अचानक उसका तेरह साल का बेटा फत्तू उसके कमरे महै आग्या। फत्तू नै देखते ही रलदू सकपका गया अर एकदम तै डिप्लोमैटिकली बात बना कै बोल्या - "गरीब छोरी सैं, कपडे लेन के पिस्से भी कोनी इन धोरै"
फत्तू बोल्या - बाब्बू जब इस तै भी गरीब आवैं तै मन्नै भी बुला लिये