उपरोक्त पोस्ट "हिन्दुस्तान" के एक लेख पर आधारित है। इस पोस्ट पर बहुत लोगों ने विचार-विमर्श विवाद भी किया। लेखक श्री मदन जैडा और पोस्ट के लेखक श्री जाकिर अली जी के मुताबिक होली दहन से पर्यावरण को गंभीर खतरा है। सहमत और असहमति में सबके अपने-अपने तर्क हैं। हर धर्म में बहुत सी बातें वैज्ञानिक सोच को साबित भी करती हैं। और कई बार समय, स्थिति और स्थान के कारण धर्म के नियम खामख्वाह ढोये जाने वाले रिवाज भी बन जाते हैं। अब होली दहन के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण था/है या नहीं, इसबारे में तो सुधिजन बतायें। होली दहन के इस पोस्ट पर मेरा विचार ….….
हो सकता है किसी क्षेत्र के मूर्ख लोग हरे पेडों को काटते हों, लेकिन मैनें आज तक कहीं हरे पेडों का इस्तेमाल होलिका दहन के लिये होते हुये नहीं देखा है। मेरे क्षेत्र में लकडी का पुराना कबाड, सूखी पुरानी जमा हुई लकडियां और गोबर के उपले से ही होली दहन किया जाता है। हमारे घरों में होली से कुछ दिन पहले गोबर से डिजाईनदार उपले आदि बनाये जाते हैं, उन्हें सूतली (धागा,रस्सी) में पिरोकर होली पूजा के लिये ले जाते हैं और होली दहन वाली जगह पर जमा कर देते हैं। लकडियां करीबन 15 दिन पहले से उस जगह (चौक) पर इकट्ठी करनी शुरु कर दी जाती हैं। लकडियां होती हैं घर में पडी सूखी, टूटा फर्नीचर, जंगल से बीन कर लाई गई टूटी शाखायें, झाड-झंखाड आदि।
यह भी लगता है कि पुराने जमाने में सर्दियां काटने के लिये लकडी, कंडे वगैरा स्टोर करके रखे जाते थे, सर्दियां बीतते ही उनका उपयोग खत्म हो जाता है। इसलिये भी उस सारे सामान को एक साथ जला दिया जाता होगा।
और मैं तो यही कहूंगा कि हरे-भरे पेड नहीं जलाने चाहिये।
एक सवाल उठा है इस पोस्ट को पढने के बाद कि -
शायद अगले वर्ष पोस्ट आये कि होली वाले दिन कितने गैलन पानी बहाया जाता है, इससे कितना नुक्सान होता है। हिन्दु रीति की शादी में फेरों पर जलाई जाने वाली लकडियों के लिये कितने वृक्ष काटे जाते हैं और सबसे बडा सवाल कि हिन्दु संस्कार में मुर्दों को जलाने के लिये भी कितने जंगल साफ हो जाते हैं।
होली पर सूखी त्यक्त लकडी जलानें की परम्परा लगभग देश में हर जगह है। और कंडो की माला की तैयारी तो तीन महिने पूर्व ही प्रारंभ हो जाती है। उस अग्नी को भी वेस्ट नहीं किया जाता। पूरा गांव उसी अग्नी से दूसरे दिन अपने चुल्हे चेताने की प्रथा है।
ReplyDeleteहिन्दु संस्कार में मुर्दों को जलाने के लिये भी कितने जंगल साफ हो जाते हैं। यह भी यत्र तत्र कहा ही जाता है। पर उसके लिये भी हरे वृक्षो के कटने की समस्या सुनी नहीं गई।
यह एक तरह से निर्थक विवाद उठाना है।
it was an out and out disgusting and biased post written to malign the festive spirit and to prove that hindus are fools
ReplyDeletethe timing of the post was totally wrong and the content was useless
what you have written here i wrote in my comment there
keep reading the comments there and do post your comments there also
WE SHOULD RAISE OUR VOICE
बिलकुल ठीक कह रहे हैं , पेंड प्रकृति के बच्चे हैं इनको नष्ट करना प्रकर्ति को नष्ट करने जैसा ही है ! यह अब हमारी समझ में आ जाना चाहिए ! शुभकामनायें अंतर सोहिल !
ReplyDeleteकिसी को भी अधिकार हैं गलत चीजों के खिलाफ लिखने का पर जाकिर जी हमेशा हिन्दू धर्म की कुरीतियों के खिलाफ ही लिखते हैं और साइंस के ज़रिये बताते हैं की हिन्दू कितने बड़े बेवकूफ हैं
ReplyDeleteये एक बार नहीं हुआ हैं सुयज्ञ जी को याद होगा एक बार जैन धर्म की साईट से भी उन्होने री पोस्ट किया था
हिन्दू धर्म मे शरीर को जलाया जाता हैं और लकड़ी लगती हैं तो ताबूत किस चीज़ से बनता हैं . ?? क्या उसमे लकड़ी नहीं लगती हैं ?? उस मे तो लकड़ी भी लगती हैं और जमीन भी घिरती हैं .
हर धर्म की अपनी आस्थाये हैं और उ उनके खिलाफ कहने और लिखने के लिये उपयुक्त समय भी होता हैं
मैने कयी बार वहाँ आपत्ति दर्ज की हैं पर हर बार मुझे कहा जाता हैं की मै नारीवादी हूँ अब इसका और मेरे नारी ब्लॉग का लेना देना हैं ???? क्या मैने कभी कहीं कहा हैं की मै हिन्दू नहीं हूँ या मै हिन्दू धर्म मै आस्था नहीं रखती हूँ ????
satish ji sae aagrh haen ki post mae diyaa link to padh laetey aur tab raay daetey
ReplyDeleteसही बात है हमारे सारे त्यौहार पर्यावरण के लिए नुकसानदायक हैं.दिवाली के खिलाफ तो आवाज़ उठाना अब फेशन हो गया है..अब होली भी.
ReplyDeleteएक पोस्ट और आनी बाकी है ....हिंदुओं को रोज नहीं नहाना चाहिए.बहुत पानी बर्बाद होता है.
रचना जी,
ReplyDeleteयहाँ मैं आपसे पूर्ण सहमत हूँ कि अनावश्यक पर्व दोषारोपण नहीं होना चाहिए। होली में सदैव सूखी अनावश्यक लकडीयां ही जलती है। कोई अक्ल का अंधा यदि हरे वृक्ष काट दे तो वह बिना आंकडो के सभी पर लागु करना कुत्सित मंशा है।
जैन साईट से उठाई उस पोस्ट की मंशा पर मैने भी आपत्ती उठाई थी।
कोई भी पर्यावरण हित के चोले में अपने निहितार्थ पूर्ण नहीं कर सकता।
अंतर भाई आप के लेख से ओर रचना की टिपण्णी से सहमत हे, बाकी उसे सब से पहले अपने आप ओर अपने ? मे झांकना चाहिये तब इधर उधर बोले...दफ़ा करो जी.पागलो के सिंग थोडे होते हे वो अपनी बातो से पहचाने जाते हे.
ReplyDeleteईद पर लाखों करोड़ो की संख्या मे निरीह जानवरों जिसमे गाय,बकरी,भैंस और ऊँट जैसे मूल्यवान जानवरों की जघन्य हत्या कर दी जाती है सिर्फ उदर-सुख के लिए.... और बहाना कुर्बानी... आज भैंसों की कीमत चालीस से साठ हज़ार इसी लिए पहुँच चुकी है, क्योंकि भैंसो के दूध से ज़्यादा मांस खाया जा रहा है। हरे पेड़ काटना एक अपराध है लेकिन निरीह जानवरों की हत्या जघन्य अपराध है
ReplyDeleteहिन्दु धर्म और उससे जुड़ी हर चीज को गलत सिद्ध करना फ़ैशन हो गया है। एक तबका पुरानी किताबों के हवालों से खुद को श्रेष्ठ और दूसरों को हेय मानता है और कुछ लोग तथाकथित विज्ञान और पर्यावरण का सहारा लेकर यही काम करते हैं।
ReplyDeleteजो हिन्दु धर्म के खिलाफ़ लिखता है वह सेक्युलर माना जाता है और जो इनकी बातों में हां में हां नहीं मिलाता वो कट्टरवादी। हिन्दु धर्म में जितने भी वैदिक कर्मकांड एवं त्यौहार हैं सभी वैज्ञानिकता पर आधारित हैं।
ReplyDeleteजो चाहो लिखो सबको छूट है।
आप की बात से सहमत हूँ | जो गलत है उसका विरोध करना चाहिए पर इसका मतलब ये नहीं की हर बात को ही गलत ठहराह कर उसका विरोध सुरु कर देना चाहिए |
ReplyDelete.
ReplyDeleteजो टिपण्णी वहाँ लिखी थी उसे ही यहाँ भी रख रही हूँ --
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होलिका दहन सिम्बोलिक है , जहाँ बुराइयों का दहन करके उसके महत्त्व को दर्शया गया है । इसके लिए होली से ४० दिन पूर्व मुख्य चौक जैसे स्थल पर लोग आते-जाते , सूखी डंडियों , टहनियों , सूखी पत्तियों आदि को इकठ्ठा करके जलाते हैं । इसके लिए हरे वृक्ष कदापि नहीं काटे जाते हैं।
अज्ञानता हर जगह व्याप्त होती है , इसलिए यदि अज्ञानतावश कहीं पर हरे पेड़ कट रहे हैं , तो देखने वाले का दायित्व है की उसे रोके और समझाए ।
लेकिन सिम्बोलिक होलिका-दहन से , जो सूखी पत्तियों ,टहनियों और गोबर के उपलों को जलाकर किया जाता है , उससे पर्यावरण को कोई खतरा नहीं है ।
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प्रसिद्ध होना हो तो विरोध करना सीखिये. बस यही मूलमंत्र है.
ReplyDeleteरामराम
जब जमीन पर बैठ कर खाने वाले डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाने लगें तो पेड़ ही कटेंगे।
ReplyDeleteहोली में हरे पेड़ नहीं कटे जाते बल्कि सूखे और जर्जर पेड़ों,कंडों,उपलों, कबाड़ लकड़ियों को जलाने का चलन है. कुछ लोग आस्था पर चोट करने से बाज नहीं आते इसलिए अनाप-शनाप लिखने में अपनी शान समझते हैं.
ReplyDeleteइस विषय पर "दिव्या" जी की पोस्ट बड़ी सारगर्भित, सटीक और वैज्ञानिक धरातल पर लिखी हुई है.मेरी राय है, उसे ज़रूर पढ़ें.
आपने सही कहा ... एक दिन ऐसा भी आ सकता है....आपकी बात चर्चामंच तक पहुचाई है.. आज आपकी पोस्ट चर्चामंच पर है... अतः आप वह पर आ कर अपने विचारों से अनुग्रहित किजियेया
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/2011/03/blog-post_25.html
आप की बात से सहमत हूँ
ReplyDeleteपेंड प्रकृति के बच्चे हैं इनको नष्ट करना प्रकर्ति को नष्ट करने जैसा ही है
ReplyDeletenice
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