29 August 2011

कैसे कहूं "मैं अन्ना हूँ"

अन्ना की मुख्य तीन मांगें मानकर सरकार ने संसद में लोकपाल बिल पेश कर दिया है। लेकिन मेरा व्यक्तिगत विचार था और है कि भारत देश में जनलोकपाल बिल जैसा कानून तो कोई भी सरकार नहीं लायेगी। मेरा समर्थन अन्ना के साथ था और है, क्योंकि आज शायद पूरे भारत में अन्ना जैसा व्यक्तित्व बहुत मुश्किल से मिलेगा। मुझे पूरा विश्वास है कि लोकपाल कानून आने से थोडा फर्क तो जरुर पडेगा। डंडे का डर फिजूल नहीं होता, बहुत से आपराधिक कार्य डंडे के डर से ही रुके होते हैं। लगभग सभी धर्मों में भी जीवन में आचरण के लिये परम सत्ता का भय दिखाकर नियम बनाये गये हैं। 
मेरा शुरू से मानना रहा है कि जबतक हर आदमी नैतिक नहीं हो जाता, तबतक भ्रष्टाचार का समूल नाश नहीं हो सकता और ऐसा होना असंभव है। इतिहास में भी कभी भी ऐसा नहीं हुआ है कि हर आदमी नैतिक हो जाये। 

अब बात रामलीला ग्राऊंड में चलने वाले आंदोलन के दिनों की। मेरे कार्यस्थल के नजदीक होने की वजह से मैं लगभग हर रोज रामलीला मैदान में जाता रहा। दूसरे लोगों को भी वहां चलने के लिये प्रेरित करता रहा। सुबह 10 बजे ट्रेन से उतरकर मैं सीधा रामलीला मैदान पहुँचता था। वहां सबसे पहले भजन होता था "रघुपति राघव राजा राम, सबको सन्मति दे भगवान"। फिर 1-2 घंटे में या एक दो गाने वगैरा सुनकर मैं ऑफिस आ जाता था। वहां स्टेज पर जब कोई बोलता था तो लोगों के नारे आदि की वजह से सुनना समझना मुश्किल सा होता था। कभी-कभी दोपहर में और शाम को भी 1-2 घंटे के लिये मैं वहां जाता रहा। 

कुछ लोग पिकनिक मनाने ही आते थे और बस फोटो खींचने-खिंचवाने में लगे रहते थे और कुछ लोग मीडिया के कैमरों के सामने आने की जुगत लगाते रहते थे। दिल्ली में रह रहे कुछ लोग, मजदूरी करने वाले और दिहाडी कार्य करने वाले लोग मुफ्त खाना खाने के लिये आते थे। कुछ नयी उम्र के लोफर टाईप लडके अन्ना टोपी लगाये लफंगागिरी करते रेलवे स्टेशनों और सडकों पर घूम रहे होते थे। अवसरवादियों ने इस आन्दोलन में धन भी खूब कमाया। तिरंगा, रिस्टबैंड, फटके, गलपट्टी, टोपी और चेहरे पर तिरंगा बनाने वाले भी हजारों की संख्या में चारों तरफ फैले थे। जो आपके कपडे देखकर हर वस्तु का दाम वसूल रहे थे। एक टोपी की कीमत 5रुपये से 50 रुपये कुछ भी मांग लेते थे। 

मैनें एक दिन दो टोपी 20रुपये की, एक दिन दो टोपी 15रुपये की और एक बार दो टोपी 10रुपये की खरीदी। लेकिन मैनें "मैं अन्ना हूँ" लिखी टोपी केवल एक दिन केवल 15मिनट के लिये ही पहनी। क्योंकि मैं अपने आप को कभी भी ये नहीं कह पाया कि "मैं अन्ना हूँ"। शुद्ध विचार और शुद्ध आचार ये दो बातें मेरे दिमाग में घूमती रही। दूसरों से मैं कितना भी छुपा लूं, लेकिन खुद से तो चाहकर भी नहीं भुला सकता। मुझे याद आता है अपना गंदा आचरण, अपने गंदे विचार, कुछ घटनायें जिन्हें मैं सबसे छुपाये हुए हूँ। अपने अन्दर भरे काम, क्रोध,लोभ और अशुद्ध विचारों के रहते मैं कैसे कह सकता हूँ कि "मैं अन्ना हूँ"।
   

14 comments:

  1. बिल्कुल सही कहा है सोहिल जी,
    हमें अन्ना कहलवाला आने से पहले उस जैसा बनना होगा।

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  2. आपकी दुविधा एकदम सही ईमानदार दुविधा है. सच जानिये आप अकेले भी नहीं हैं.

    बच्चा मुंह में अंगूठा डालने के समय से ही जब अपने मां-बाप को स्कूल में उसके दाखिले के लिए साम-दाम-दंड-भेद लगाते देख कर जब अपना जीवन शुरू करता है तो उन अध्यापको के हत्थे चढ़ता है जिनके लिए 'मास्टरी' नौकरी की मज़बूरी है. दूसरी तरफ मां बाप भी उसे कोहनीबाज बनाने से बाज़ नहीं आते कि पढ़ाई समेत हर चीज़ में दूसरों को पछाड़ दो....

    ऐसे में कहां से आएंगे कल अन्ना.

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  3. बन कर बड़ा होना सरल भी है और उचित भी, स्वयं के अनुभव से पाया ज्ञान स्थायी रहता है।

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  4. सोहिल जी आपने सही कहा है मेरे हिसाब से अस्सी प्रतिशत लोग रामलीला मैदान में फोटो खिंचवाने या सुर्ख़ियों में आने के लिए ही आते थे मैंने खुद लोगो को कहते सुना है की कम से कम फोटो और नाम तो आएगा ही मेरा मानना है की हर आदमी अन्ना नहीं हो सकता लेकिन हमें कोशिश जरुर करनी चाहिए अन्ना बनने की ....

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  5. एक ईमानदार स्वीकारोक्ति....काश हर कोई ऐसा ही कुछ सोचे और खुद को बदलने की कोशिश करे...कुछ तो अच्छा होगा.

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  6. सुन्दर प्रस्तुति ||
    सभी लोग शपथ लॅ कि हम कभी भी किसी बेईमान और आपराधिक तत्त्व को ना तो बचायॅगे और ना ही समथँन करॅगे अन्ना हम सब आपके साथ हैं आप संघर्ष करते रहें
    घर का कोई एक कोना सॉफ कर देने मात्र से ही पूरा घर सॉफ नही हो जाता. मतलब ये की केवल खुद को ईमानदार बना लेने से ही पूरे देश से भ्रास्तचार ख़त्म नही हो जाएगा. इसके लिए ज़रूरी ये है की खुद इमानदर बनो और साथ मे दूसरे को बेईमान बनने से रोको. और यह तभी संभव है जब देश के अंदर एक ऐसा मजबूत पारदर्शी सिस्टम हो जो ऐसे लोगो को ग़लत काम करने से रोके. मजबूत लोकपाल बिल इसी का एक विकल्प है.

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  7. आप से सहमत हूं की हम में से ज्यादातर में वो समर्पण नहीं है देश समाज के लिए जो अन्ना में है किन्तु जो भाव भी है जितना भी है थोडा ही सही है तो जरुर थोडा ही सही वहा गये उसमे भाग ले रहे लोगों में देश के लिए कुछ करने का जज्बा तो है ना | जहा तक बात फोटो खिचवाने की है तो इसको मै अपनी यादो को हमेसा ताजा रखने के लिए किया गया काम मानती हूं आज सभी के पास कैमरा होता है और लोग हर अच्छी बुरी चीज की फोटो लेते है हमने भी ढेर आरी ली है ताकि बेटी बड़ी हो तो उसे बता सके की गलत के खिलाफ कैसे बोलना चाहिए और कैसे व्यवस्था को बदलना चाहिए |

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  8. हमने तो मान लिया. मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना, सारा देश है अन्ना........नयी क्रांति का आगाज.

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  9. सोहिल भाई, बहुत गहरी बात कही आपने। काश, ऐसा और लोग भी सोच पाते।
    वैसे इस आंदोलन की सफलता एक छोटे से नारे में ही निहित है। इससे कहने के बाद हर व्‍यक्ति में एक जोश और जुनून सा आ जाता है और वह पूरे मन से आंदोलन में शामिल हो जाता है।

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    कसौटी पर शिखा वार्ष्‍णेय..
    फेसबुक पर वक्‍त की बर्बादी से बचने का तरीका।

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  10. टोपी नहीं पहनने की यही लक्ष्‍मण रेखा पहनने वालों पर भी हावी होती है। इसलिए कहीं न कहीं परिवर्तन होने लगता है। आपको बधाई, एक सफल आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए।

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  11. बिल्कुल सही बात कही आपने, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  12. एकदम सत्य कहा आपने...
    सादर बधाई...

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  13. अन्ना बनने के लिए पहले एक अच्छे इन्सान बनना है फिर अन्ना ......

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