इसका उत्तर मैं अपने विचार से आखिर में दूंगा, पहले यह कहानी पढिये -
बेटे रोजाना देखते कि पिता हर रोज खाना खाने के बाद दीवार के एक कोने में बने आले के पास जाता है। दरअसल पिता रोजाना खाना खाने के बाद दांतों में फंसे अन्न के कणों को निकालने के लिये एक सींक (लकडी की तीली) का प्रयोग करता था। उसने सींक कोने की दीवार के आले में रख रखी थी। बेटों ने कारण जानने की कभी कोशिश भी नहीं की थी। पिता के गुजरने के बाद बेटे आले को भूल गये और अपने-अपने जीविकोपार्जन में व्यस्त हो गये। समय बीता बेटों ने धन कमाया और घर को नये सिरे से बनवाने की सोची। घर तोडा जा रहा था तो उन्हें उस आले का ख्याल आया। वहां देखा तो एक लकडी की तीली रखी थी। पिता ने बताया नहीं, मगर जरुर यहां पूजा करते होंगें या कुछ तो खास है इसमें। बेटों ने नये घर में भी वैसा ही आला बनवाया और एक चंदन की लकडी की सुन्दर सींक बनवाकर, सुन्दर कपडा बिछाकर वहां रख दी और खाना खाने के बाद आले पर प्रणाम करने लगे। थोडे समय बाद उन्होंने वहां चांदी की सींक बनवाकर रख दी एक ज्योत भी जलाने लगे। बाद में और ज्यादा धन आने पर अलग-अलग घर लेने पर भी सभी बेटों ने अपने-अपने घरों में वैसी ही सोने की तीलियां बनवाकर उनकी पूजा शुरु कर दी।
अब उनके बच्चे लाख इसके वैज्ञानिक कारण दें या खोजें। मूल बात तो खो ही गई और अंधश्रद्धा चालू है।
हर समाज में जीवन को सुन्दर और खुशहाल बनाने के लिये, दैहिक और आर्थिक आपदाओं से निपटने के लिये आचरण के नियम बनाये गये थे। उनका पालन करवाने के लिये धर्म आदि से जोडकर, थोडा भय भी पैदा किया गया था। हालांकि उस स्थिति, समय और स्थान के लिहाज से जरुर इन सबके वैज्ञानिक कारण रहे होंगें। परन्तु जरुरी नहीं कि वे सभी नियम आज के परिवेश में उतने ही कारगर हों।
मुझे तो लगता है कि ऐसा वही लोग कर रहे हैं, जिन्हें अपने कार्यों, अपने रीति-रिवाजों पर खुद विश्वास नही है और वे ऐसे कारण खोज-खोज कर और अपने मन-माफिक व्याख्या निकाल कर, जनसहमति पाकर अपने विचारों को ही पुष्ट करने की कोशिश करते हैं। उन्हें खुद भी भरोसा नहीं है, जो वे मानते हैं उस पर। जब वे दूसरे को भी राजी कर लेते हैं, तो थोडा भरोसा आता है।
मुझे तो लगता है कि ऐसा वही लोग कर रहे हैं, जिन्हें अपने कार्यों, अपने रीति-रिवाजों पर खुद विश्वास नही है और वे ऐसे कारण खोज-खोज कर और अपने मन-माफिक व्याख्या निकाल कर, जनसहमति पाकर अपने विचारों को ही पुष्ट करने की कोशिश करते हैं। उन्हें खुद भी भरोसा नहीं है, जो वे मानते हैं उस पर। जब वे दूसरे को भी राजी कर लेते हैं, तो थोडा भरोसा आता है।
अपनी बात को आपने बहुत अच्छे उदाहरण से समझाया है। वस्तुस्थिति यही है।
ReplyDelete4.5/10
ReplyDeleteसुन्दर विचारणीय पोस्ट
लेख थोडा विस्तृत होता अच्छा रहता
सोहिल जी, मेरा मानना है कि जब जो धर्म अस्तित्व में आया, उसके प्रवर्तकों ने अपनी तात्कालिक समझ के अनुसार उसे व्यवहारिक और समझदारी भरा, आप चाहें तो अपनी सुविधा के अनुसार इसे वैज्ञानिक भी मान सकते हैं, जबकि यह सत्य है कि उस समय वैज्ञानिकता जैसी कोई चीज थी ही नहीं, बनाया। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, वैसे वैसे वे नियम और कायदे कानून अप्रासंगिक होते गये। चूँकि अब इन सब चीजों पर सवाल उठाए जाने लगे हैं, तो उन कायदे कानूनों के पालनकर्ता उन्हें अपनी पीढ़ी से जबरदस्ती मनवाने के लिए उन्हें तार्किक सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं। सीधी सी बात है कि इसके पीछे उनके अपने तमाम तरह के डर हैं, जो उनसे यह सब काम जबरन करवा रहे हैं।
ReplyDeleteसोहिल जी,
ReplyDeleteयह सही है कि लोग क्यो धर्म शास्त्रों के कथन को विज्ञान से प्रमाणित करना चाह्ते है।
आपकी कथा की तील्ली पूजा, अथवा पर्यावरण-अहिंसार्थ पेड पूजा हो सकती है।
विवेकशील व्यक्ति को चाहिए,धर्म शास्त्रों में आज जो समझ नहिं आता, जरूरी नहिं अंध्विश्वास ही हो,और जरूरी भी नहिं वही मायने हो जो व्याख्या हम कर रहे है। इसलिये इसकारण समग्र धर्म शास्त्रों को अनावश्यक मान छोड देने की जगह, अबोध हिस्से को निरपेक्ष भाव से छोडते हुए, गुणग्राहकता रखनी चाहिए।
@ सुज्ञ जी
ReplyDeleteमुझे लगता है कि आपने पोस्ट पर सरसरी नजर डाली है। तील्ली पूजा और पेड पूजा वाली बात के लिये आप कृप्या एक बार पोस्ट को और कहानी को दोबारा पढें।
आभार
सोहिल जी,
ReplyDeleteपोस्ट को मैनें पुनः पढा।
सार यही है न "अब उनके बच्चे लाख इसके वैज्ञानिक कारण दें या खोजें। मूल बात तो खो ही गई और अंधश्रद्धा चालू है।"
कदाचित मैं ही स्पष्ट न हो पाया।
मेरा भावार्थ था, तिल्ली की कथा में स्पष्ट अंधश्रद्धा से प्रारंभ प्रथा अंधश्रद्धा पर ही अंत है।
और पर्यावरण-अहिंसार्थ प्रारंम्भ पेड-पूजा, वनस्पति के प्रतीक सम्मानार्थ प्रारंभ और अंधश्रद्धा पर अन्त है।
अतः मेरा मंतव्य था "धर्म शास्त्रों में आज जो समझ नहिं आता, जरूरी नहिं अंध्विश्वास ही हो,और जरूरी भी नहिं वही मायने हो, जो व्याख्या हम कर रहे है। मात्र इसी कारण से समग्र धर्म शास्त्रों को अनावश्यक मान, छोड देने की जगह, केवल अबोध हिस्से को ही निरपेक्ष भाव से छोडते हुए, मानव हित में गुणग्राहकता अपनानी चाहिए।
@ सुज्ञ जी
ReplyDeleteआपकी बात से पूर्णत: सहमत कि
"धर्म शास्त्रों में आज जो समझ नहिं आता, जरूरी नहिं अंध्विश्वास ही हो,और जरूरी भी नहिं वही मायने हो, जो व्याख्या हम कर रहे है। मात्र इसी कारण से समग्र धर्म शास्त्रों को अनावश्यक मान, छोड देने की जगह, केवल अबोध हिस्से को ही निरपेक्ष भाव से छोडते हुए, मानव हित में गुणग्राहकता अपनानी चाहिए।"
बहुत सही कहा आपने
आभार
आप से सहमत हु | लोगों को अपने विश्वास पर ही भरोसा नहीं है सभी लोग अपने सुविधानुसार चीजो को कभी मानते है तो कभी उसे मानने से इंकार कर देते है |
ReplyDeleteसोहिल जी,
ReplyDelete@अपने मन-माफिक व्याख्या निकाल कर, जनसहमति पाकर अपने विचारों को ही पुष्ट करने की कोशिश करते हैं।
पूर्ण सत्य कहा आपनें
यह'क्रूरता के सहभोजी' अपने स्वादेंद्रिय की तृप्ती के लिये, हिंसक लोगों को आदर देकर, उनके संग मांसाहार में लिप्त हो जाते है।
दूसरों की गंदगी कुरेदने वाली यह विचारधारा धर्मशास्त्रों को पूरा कूडा ही मानती है।
ईश्वर या धर्म की मान्यता बढे तो, तो इनकी 'रोज़ी' पर लात पडती है।
एक मात्र आत्मा है या नहिं प्रश्न पर तो विज्ञान संचार के प्रयास मिट्टी में जा पड़ते हैं।
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ReplyDelete.
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मुझे तो लगता है कि ऐसा वही लोग कर रहे हैं, जिन्हें अपने कार्यों, अपने रीति-रिवाजों पर खुद विश्वास नही है और वे ऐसे कारण खोज-खोज कर और अपने मन-माफिक व्याख्या निकाल कर, जनसहमति पाकर अपने विचारों को ही पुष्ट करने की कोशिश करते हैं। उन्हें खुद भी भरोसा नहीं है, जो वे मानते हैं उस पर। जब वे दूसरे को भी राजी कर लेते हैं, तो थोडा भरोसा आता है।
I think that You have hit the nail right on the head !!!
आभार आपका!
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This comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDelete@ सुज्ञ जी
ReplyDeleteआदरणीय खान-पान समाज और स्थान के अनुसार हर किसी का अलग है। मांसाहार और शाकाहार के पैमाने भी आंशिक तौर पर समाज और स्थिति के अनुसार बदल जाते हैं।
@ तुम्बक राजपुरी जी
आपकी टिप्पणी मुझे विषय से हटकर है लगी है। इसलिये क्षमायाचना सहित हटा रहा हूँ।
प्रणाम स्वीकार करें
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसोहिल जी
ReplyDelete@पैमाने भी आंशिक तौर पर समाज और स्थिति के अनुसार बदल जाते हैं।
मेरा मंतव्य उस दोहरे मापदंड की तरफ़ था, जहां करूणा की बातें की जाती है।
"मूल बात तो खो ही गई और अंधश्रद्धा चालू है।"
ReplyDeleteऔर कितने असहाय हैं सब विज्ञानं की बैसाखी के बिना
उदाहरण के लिए प्रस्तुत कहानी बहुत गहन है...सहेज कर रखने लायक!
ReplyDeleteबहुत सुंदर विचार लिये हे आप की यह पोस्ट ओर आज के सत्य को दर्शाति, हम या हमारे जेसे लोग बिना कारण जाने ही किसी बात पर अंध विश्वास करने लगते हे, धन्यवाद
ReplyDeleteजिस विषय का पूर्ण ज्ञान न हो, उस विषय में मैं क्या बोलूँ?
ReplyDelete.
ReplyDelete@--जब वे दूसरे को भी राजी कर लेते हैं, तो थोडा भरोसा आता है।
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चलिए हम भी आपसे सहमती में अपना सुर मिला देते हैं...हो सकता है आपका भी भरोसा थोडा बढ़ जाए।
आभार।
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आपकी पोस्ट के अन्तिम सार को बार बार मनन करता हूं तो पाता हूं
ReplyDeleteआपने तो सभी तरह की विचारधाराओं पर एक समान चोट की है।
मुझे तो लगता है कि ऐसा वही लोग कर रहे हैं, जिन्हें अपने कार्यों, अपने रीति-रिवाजों पर खुद विश्वास नही है और वे ऐसे कारण खोज-खोज कर और अपने मन-माफिक व्याख्या निकाल कर, जनसहमति पाकर अपने विचारों को ही पुष्ट करने की कोशिश करते हैं। उन्हें खुद भी भरोसा नहीं है, जो वे मानते हैं उस पर। जब वे दूसरे को भी राजी कर लेते हैं, तो थोडा भरोसा आता है।
सभी यही भरोसा चाह्ते है!!!!!
@ उडनतश्तरी जी
ReplyDeleteआदरणीय यह कहानी ओशो ने अपने प्रवचनों में कही है।
प्रणाम
अन्तर सोहिल जी, अपने इतना सुन्दर उदाहरण दिया है बात जो भी समझना चाहे समझ सकता है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
यह कहानी इतनी बढ़िया है कि इस पर विश्वास करना ही होगा और यह कदापि अन्धविश्वास नहीं होगा । आजकल विज्ञान का सहारा लेकर जिन बातों को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है उसे हम छद्मविज्ञान कहते हैं ।
ReplyDeleteना जादू ना टोना पर नई पोस्ट देखें ।
ReplyDeleteसहमत हू। शुभकामनायें।
ReplyDeleteबहुत सही बात कही,...लोग लकीर के फ़कीर बने हुए हैं....बस अपनी सुविधानुसार ही रिवाजों से सहमत या असहमत होते हैं..
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