मैं जो भी करता हूं, वह मुझसे निकलता है; लेकिन मेरा होना मेरे करने से नहीं निकलता। मेरा अस्तित्व मेरे करने के पहले है। आचरण बाहरी घटना है, इसलिये यह भी हो सकता है कि मेरा कर्म मेरे संबंध में जो भी कहता हो, वह मेरी आत्मा की सही गवाही न हो। कर्म धोखा दे सकता है; कर्म प्रवचना हो सकता है; कर्म पाखंड हो सकता है। हो सकता है कि मेरे भीतर एक दूसरी ही आत्मा हो, जिसकी खबर मेरे कर्मों से न मिलती हो।
पूरी तरह असाधु होते हुये भी मैं बिल्कुल साधु का आचरण कर सकता हूं। मेरे भीतर कितना ही झूठ हो, मैं सच बोल सकता हूं। मेरे भीतर कितनी भी हिंसा हो, मैं हिंसक हो सकता हूं। मैं बाहर से क्रोध प्रकट न करुं, और मेरे भीतर बहुत क्रोध हो। क्योंकि आचरण व्यवस्था की बात है और यह अभ्यास से संभव हो जाता है।
लेकिन आचरण से जो धोखा देता हूं, वह आपकी आंखों को दिया जा सकता है। लेकिन वह धोखा स्वयं को नहीं दिया जा सकता। इसलिये कोशिश करता हूं कि स्वयं को धोखा ना दूं।
acha darshan hai...hum khud bhi nahijaante ki hum kya hain...ho sakta hai johum samajhte hon wo hum hohi naa
ReplyDeleteरजनीश के विचार लगते है जी
ReplyDelete@ राज भाटिया जी
ReplyDeleteजी हां मैनें ये पंक्तियां रजनीश (ओशो) के ही गीता दर्शन श्रंखला के प्रवचन से ली हैं
प्रणाम