सुबह रेलवेस्टेशन पर आया तो देखा छैऊलाल एक बैंच पर बैठा है। उसके सारे भाई उसे बडे प्यार से पुचकार रहे हैं। मैनें पूछा क्या बात है बिना नहाये सब जने आज स्टेशन पर कैसे? उन्होंनें बताया छैऊ घर छोड कर जा रहा है, इसे समझाते-समझाते थक गये हैं। किसी की बात भी नही मान रहा। मैनें पूछा मगर ये घर छोड कर क्यूं जा रहा है। पता लगा घर में ही आपस में कहा-सुनी हो गई है। किसी ने गुस्से में कुछ कह दिया इसलिये कह रहा है कि - मैं घर छोडकर जा रहा हूं। (छैऊ पहले भी इसी तरह दो बार धमकियां दे चुका है, और इसे समझा-बुझा कर वापिस घर ले जाते हैं)
मैनें कहा तो भाई इसे जाने दो, कब तक रोक कर रखोगे। क्या गले में पट्टा डालोगे या जंजीर से बांध कर रखोगे। बढिया तो यह रहेगा कि इसे कुछ पैसे दे दो, रास्ते में खाने-पीने के काम आयेंगें और आसानी रहेगी। और इसे कहो कि कुशल-मंगल का फोन करते रहना। (अरे भाई हम खुद भी घर से दो बार भागे हैं, और वापिस घर ही आना पडा है।) असल में तो यह कहीं जायेगा ही नहीं और जायेगा तो एक-दो दिन में घूम-फिर कर आ जायेगा। इसका गुस्सा भी ठंडा पड जायेगा।
मेरे विचार से जिसे घर छोडकर (ब्लागिंग से भी) जाना होता है वो ढोल पीट-पीट कर नही जाता। वो तो दूसरों की सहानुभूति पाने, दूसरों का दिल दुखाने और भाव बढाने के लिये मुनादी करता है। सब उसे रोकने के लिये खामख्वाह मक्खन लगाने और पुचकारने लगते हैं।
एक बार अलविदा कहें, शुभकामनायें दे कर देखो, क्या वह सचमुच जाता है? कभी नहीं….….॥…।
वरना जाने वाले को कौन रोक पाया है जी
नीचे लिखी पंक्तियों के रचनाकार के बारे में आप जानते हैं तो कृप्या मुझे भी बतायें।
घर से हुए जो दूर तो घर का पता चला
आंगन में पडे एक-एक पत्थर का पता चला
नाराजगी बज़ा थी बुजुर्गों की किस कदर
क्यों टोकते थे हर कदम पर का पता चला
दूजों की खामियों को गिनाया अगर कभी
खुद में भी कहीं पल रहे अजगर का पता चला
परदे जो झूठ के ही जहन पर पडे हुए
सच देख न पाती जो नजर का पता चला
यूं तो सभी अपने लगा करते रहे लेकिन
रुसवा हुए तो हमको शहर भर का पता चला
यह रचना कहीं से नकल करके मैनें विद्यालय के दिनों में डायरी में लिख रखी थी। मूल लेखक को साधुवाद दीजिये। आपत्ति होने पर क्षमायाचना सहित हटा दी जायेगी।
कोई नहीं जाता छोड़कर कहीं प्यार ही इतना मिलता हैं
ReplyDeleteऔर हम जाने देंगे तब न हज़ार बार रूठो हम लाख बार मनाने के लिए तैयार हैं
और जो आपने कविता पोस्ट करीं हैं न बहुत सुन्दर हैं
मैंने एक बात देखी इस कविता को अगर नीचे से ऊपर की और पढो तो भी बहुत सुन्दर बन पड़ती हैं
प्रणाम स्वीकार करें
आज तो वाकई बडा गूढ ज्ञान दिया है. आभार.
ReplyDeleteरामराम.
जब से मेने करोडो रुपये लगा कर टंकी बनाई, कोई भी नही चढा :) चलो इस छैऊलाल को ही भेज दो...बह्त सच्ची सच्ची बात बोल गये जी
ReplyDeleteअरे अरे कहाँ चले बच्चे। देख लेना जा ही नही सकोगे ऐसे ही थोडे ब्लागिन्ग मे दाखिला दिलवाया। चुप चाप लिखते रहो। वैसे कविता बहुत अच्छी है। आशीर्वाद्
ReplyDeleteaapaki tah bahut hi sudar hai bahut hi badhiya ,aise hi likhte rahiye.shubhkamana sahit.
ReplyDeletepoonam
DIL KO CHOO LENE WALI ATI SUNDER LEKH LIKHA HAI.SHIKSHPARD HAI
ReplyDeleteTHANK YOU
SUSHIL GUPTA
यूं तो सभी अपने लगा करते रहे लेकिन
ReplyDeleteरुसवा हुए तो हमको शहर भर का पता चला..
Waise to harek pankti dohrane layaq hai!
जनाब सही कहा अपने कि जाने वाले को कोन रोक पाया है और कविता जिस किसी ने भी लिखी है बहुत शानदार है.
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