अन्ना की मुख्य तीन मांगें मानकर सरकार ने संसद में लोकपाल बिल पेश कर दिया है। लेकिन मेरा व्यक्तिगत विचार था और है कि भारत देश में जनलोकपाल बिल जैसा कानून तो कोई भी सरकार नहीं लायेगी। मेरा समर्थन अन्ना के साथ था और है, क्योंकि आज शायद पूरे भारत में अन्ना जैसा व्यक्तित्व बहुत मुश्किल से मिलेगा। मुझे पूरा विश्वास है कि लोकपाल कानून आने से थोडा फर्क तो जरुर पडेगा। डंडे का डर फिजूल नहीं होता, बहुत से आपराधिक कार्य डंडे के डर से ही रुके होते हैं। लगभग सभी धर्मों में भी जीवन में आचरण के लिये परम सत्ता का भय दिखाकर नियम बनाये गये हैं।
मेरा शुरू से मानना रहा है कि जबतक हर आदमी नैतिक नहीं हो जाता, तबतक भ्रष्टाचार का समूल नाश नहीं हो सकता और ऐसा होना असंभव है। इतिहास में भी कभी भी ऐसा नहीं हुआ है कि हर आदमी नैतिक हो जाये।
अब बात रामलीला ग्राऊंड में चलने वाले आंदोलन के दिनों की। मेरे कार्यस्थल के नजदीक होने की वजह से मैं लगभग हर रोज रामलीला मैदान में जाता रहा। दूसरे लोगों को भी वहां चलने के लिये प्रेरित करता रहा। सुबह 10 बजे ट्रेन से उतरकर मैं सीधा रामलीला मैदान पहुँचता था। वहां सबसे पहले भजन होता था "रघुपति राघव राजा राम, सबको सन्मति दे भगवान"। फिर 1-2 घंटे में या एक दो गाने वगैरा सुनकर मैं ऑफिस आ जाता था। वहां स्टेज पर जब कोई बोलता था तो लोगों के नारे आदि की वजह से सुनना समझना मुश्किल सा होता था। कभी-कभी दोपहर में और शाम को भी 1-2 घंटे के लिये मैं वहां जाता रहा।
कुछ लोग पिकनिक मनाने ही आते थे और बस फोटो खींचने-खिंचवाने में लगे रहते थे और कुछ लोग मीडिया के कैमरों के सामने आने की जुगत लगाते रहते थे। दिल्ली में रह रहे कुछ लोग, मजदूरी करने वाले और दिहाडी कार्य करने वाले लोग मुफ्त खाना खाने के लिये आते थे। कुछ नयी उम्र के लोफर टाईप लडके अन्ना टोपी लगाये लफंगागिरी करते रेलवे स्टेशनों और सडकों पर घूम रहे होते थे। अवसरवादियों ने इस आन्दोलन में धन भी खूब कमाया। तिरंगा, रिस्टबैंड, फटके, गलपट्टी, टोपी और चेहरे पर तिरंगा बनाने वाले भी हजारों की संख्या में चारों तरफ फैले थे। जो आपके कपडे देखकर हर वस्तु का दाम वसूल रहे थे। एक टोपी की कीमत 5रुपये से 50 रुपये कुछ भी मांग लेते थे।
मैनें एक दिन दो टोपी 20रुपये की, एक दिन दो टोपी 15रुपये की और एक बार दो टोपी 10रुपये की खरीदी। लेकिन मैनें "मैं अन्ना हूँ" लिखी टोपी केवल एक दिन केवल 15मिनट के लिये ही पहनी। क्योंकि मैं अपने आप को कभी भी ये नहीं कह पाया कि "मैं अन्ना हूँ"। शुद्ध विचार और शुद्ध आचार ये दो बातें मेरे दिमाग में घूमती रही। दूसरों से मैं कितना भी छुपा लूं, लेकिन खुद से तो चाहकर भी नहीं भुला सकता। मुझे याद आता है अपना गंदा आचरण, अपने गंदे विचार, कुछ घटनायें जिन्हें मैं सबसे छुपाये हुए हूँ। अपने अन्दर भरे काम, क्रोध,लोभ और अशुद्ध विचारों के रहते मैं कैसे कह सकता हूँ कि "मैं अन्ना हूँ"।