01 October 2009

सब बना-बनाया खेल मिट जाए

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन गया है अपने शराबघर में और उसने जाकर पूछा कि मैं पूछने आया हूं कि क्या शेख रहमान इधर अभी थोडी देर पहले आया था? शराबघर के मालिक ने कहा कि हां, घडीभर हुई, शेख रहमान यहां आया था। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि चलो इतना तो पता चला । अब मैं यह पूछना चाहता हूं कि क्या मैं भी उसके साथ था?
काफी पी गए हैं। वे पता लगाने आए हैं कि कहीं शराब तो नहीं पी ली! इतना ख्याल है कि शेख रहमान के साथ थे। दूसरे का ख्याल बेहोशी में बना रहता है, अपना भूल जाता है। तो शेख रहमान अगर यहां आया हो, तो मैं भी आया होऊंगा। और अगर वह पीकर गया है, तो मैं भी पीकर गया हूं।
दूसरे से हम अपना हिसाब लगा रहे हैं। हम सब को अपना तो कोई ख्याल नहीं है, दूसरे का हमें खयाल है। इसलिए हम दूसरे की तरफ बडी नजर रखते हैं। अगर चार आदमी आपको अच्छा आदमी कहने लगे, तो आप अचानक पाते हैं कि आप बडे अच्छे आदमी हो गए। और चार आदमी आपको बुरा आदमी कहने लगे, आप अचानक पाते हैं, सब मिट्टी में मिल गया; बुरे आदमी हो गए! आप भी कुछ हैं? या ये चार आदमी जो कहते हैं, वही सबकुछ है?
इसलिए आदमी दूसरों से बहुत भयभीत रहता है कि कहीं कोई निंदा न कर दे, कहीं कोई बुराई न कर दे, कहीं कुछ कह न दे कि सब बना-बनाया खेल मिट जाए। आदमी दूसरों की प्रशंसा करता रहता है, ताकि दूसरे उसकी प्रशंसा करते रहें। सिर्फ एक वजह से कि दूसरे के मत के अतिरिक्त हमारे पास और कोई संपदा नहीं है। दूसरे का ही हमें पता है। अपना हमें कोई भी पता नहीं है।
यह कहानी गीता-दर्शन (भाग चार) अध्याय आठ से साभार ली है। अगर ओशो इन्ट्रनेशनल फाऊण्डेशन या किसी को आपत्ति है तो हटा दी जायेगी।

8 comments:

  1. sahi kaha...logon ki fikr me hi sab duble huye ja rahe hain...khud kya chahte hain se jyada log kya chahte hain iski fikr lagi rahti hai...

    ReplyDelete
  2. ताराशंकर बंद्योपाध्याय के उपन्यास गणदेवता में पात्र है चौधरी। अब गरीब हो गया है, पर चाहता है कि पहले सा आदर कर लोग नमस्कार करें। लिहाजा वह पहले नमस्कार करता है सामने वालों को - उपेक्षा से बचने को।
    पर मीकनेस (Meekness) कोई दुर्गुण नहीं। बड़ा कठिन है अपना अहं मिटाकर मीक बनना

    ReplyDelete
  3. बिलकुल सही कहा आप ने.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  4. 'आदमी दूसरों की प्रशंसा करता रहता है, ताकि दूसरे उसकी प्रशंसा करते रहें।' - ये तो अक्सर दिखता है. अपने ब्लॉग्गिंग में तो खूब !

    ReplyDelete
  5. इसे पढ़कर कुछ पढ़ा हुआ याद आया ....
    हम सिर्फ उन्हें पसंद करते है जो हमारी प्रशंसा करते है .....जिनकी प्रशंसा हम करे ये जरूरी नहीं के हम उन्हें पसंद करते हो....

    ReplyDelete
  6. अक्सर लोग उनको जी तोड मिटाने की कोशीश करते हैं जो उन्हे पसंद ना हो. प्रसंशा तो दूर की बात है.

    रामराम.

    ReplyDelete
  7. "अपना हमें कोई भी पता नहीं है।"

    बहुत बड़ी त्रासदी बता दी आपने आदमी की आदमी को.................
    समस्त समस्याओं की जड़ यही है...........

    चन्द्र मोहन गुप्त
    जयपुर
    www.cmgupta.blogspot.com

    ReplyDelete

मुझे खुशी होगी कि आप भी उपरोक्त विषय पर अपने विचार रखें या मुझे मेरी कमियां, खामियां, गलतियां बतायें। अपने ब्लॉग या पोस्ट के प्रचार के लिये और टिप्पणी के बदले टिप्पणी की भावना रखकर, टिप्पणी करने के बजाय टिप्पणी ना करें तो आभार होगा।