पानी की बोतल 100 रुपये की, बिस्कुट के पैकेट 50 रुपये का बेचा जा रहा है। ना बेचें तो क्या करें वहां के बाशिंदे। उनका भी घर-बार उजडा है। इसी यात्रा के 2-3 महिनों में थोडा-बहुत कमा कर वो साल भर अपना और अपने बच्चों का पेट पालते हैं। वहां तक सामान और पानी ढोकर ले जाना कोई आसान कार्य नहीं है। हम लोग जाते हैं तो अपना कच्छा भी भारी लगने लगता है, चढते-चढते। हम ये क्यों नहीं सोचते कि पैसा खर्च करके कम से कम पानी-बिस्कुट मिल तो रहा है, वर्ना ये लोग इस लालच में वहां पानी लेकर ना जायें तो प्यास से भी तो मरोगे। वो लोग ना बेचें तो इनके बच्चे मरेंगे, घर-दुकान तो पहले ही डूब चुके हैं। घोर विपत्तियां जब आती हैं तो आदमी में स्वार्थपन की भावना प्रबल हो जाती है।