31 December 2010

पांच सवाल, नया साल, फत्तूआईन, बोनस में फत्तू

अन्तर सोहिल
वही दिन हैं और वही रात है। रोज नया साल आता है मेरे लिये तो और रोज खुद को शुभकामनायें देता हूँ। 
पाँच सवाल जो खुद से ही कर रहा हूँ :-

1> यहां आभासी संसार में रिश्ते जोड रहा हूँ। क्या मेरे भाई-बहन से, नातेदारों से, पुराने दोस्तों से पडोसियों से अपने रिश्तों को सहेज कर रख पाया हूँ?

2> यहां आभासी संसार में नम्रता दिखा रहा हूँ। क्या अपने माता-पिता और बडे-बुजुर्गों को भी सम्मान दे रहा हूँ या उनके थोडा सा मशविरा देने पर ही यह जवाब देता हूं कि - अपना ज्ञान अपने पास रखिये, मेरे भेजे में भी बुद्धि है।

3> ब्लॉगिंग और पोस्ट पढने में  जितना समय दे रहा हूँ। क्या पत्नी, बच्चों और माता-पिता को जितना समय देना चाहिये, उसमें कटौती तो नहीं हो गई है।

4> यहां पोस्ट में बातें बना-बना कर लिखता हूँ और दुनिया को सुधारने की बातें करता हूँ। क्या मेरे बच्चे मेरे उपेक्षित व्यवहार के कारण कुरकुरे और अंकल चिप्स खाते हुये, टीवी में शिनचैन आदि देखकर अपनी सेहत और पढाई का नुकसान तो नहीं कर रहे हैं?

5> ऑफिस में कार्य बाकि तो नहीं छोड रहा हूँ। पूरा दिन नेट भी तो ऑफिस का ही प्रयोग करता हूँ।

हर साल नया साल आता है, लेकिन क्या सचमुच? सभी बधाईयां देने में लगे हैं। आशा बंधाई जाती है कि इस बार आप ज्यादा सुखी, खुश और सफल रहें। लेकिन क्या सचमुच 1 जनवरी का दिन कुछ अलग होता है। मेरे देखे कुछ अलग नहीं होता, अलग होता है तो केवल भाव (मन के विचार)। वही दिन होता है और वैसी ही शाम होती है। बस 2-4 दिन मन के भाव बदल जाते हैं और सबकुछ नया-नया सा लगने लगता है। यही भाव तो दुख और खुशी देता है। लोग चिल्लाते रहते हैं कलयुग है भाई। लेकिन सतयुग कौन सा था। उस युग में भी अबलाओं का हरण होता था। भाई-भाई तब भी जर-जोरु-जमीन के लिये लडते थे। एक-दूसरे की सम्पदा हथियाने के लिये युद्ध होते थे। मासूम प्रजा तब भी दुखी थी। दुख-सुख तो जिन्दगी में ऐसे ही आते रहेंगे। हर कोई आस बंधाता है कि नववर्ष आपके लिये खुशियां लेकर आये। आप बताईये ऐसा हो सकता है जिन्दगी में केवल खुशियां ही खुशियां हों। क्या कभी किसी के साथ ऐसा हुआ है? मेरे देखे तो ऐसा होना नामुमकिन है। सभी धर्मों में हर कोई अपने इष्ट को ही देख ले क्या उनके जीवन में हमेशा खुशियां रही हैं?

बडे-बूढे लोग कहते हैं कि हमारे जमाने में घी 1 रुपये किलो था। चावल आठ आने का पसेरी था। जमाना सस्ता था। लेकिन ये नहीं बताते कि उस समय आम आदमी क्या कमा पाता था साल भर में। क्या दो रुपये की मजूरी भी कर पाता था महिने में। सभी आज महंगाई मार गई गाने में लगे हैं। एक बार आराम से बैठ कर सोचियेगा, ऐसा कौन सा जमाना था जिसमें महंगाई नहीं थी। राजा-महाराजाओं के जमाने से लेकर, अंग्रेजों के शासन तक और प्रेमचन्द की कहानियों से लेकर आज तक क्या आम आदमी महंगाई का रोना रोता नहीं आया है? ये तो ऐसे ही चलेगा जी। कुछ नहीं बदला है और कुछ नहीं बदलेगा। वही दिन हैं और वही रात है। आप वेल्ले बैठे हो तो नववर्ष पर लिखी मेरी 01 जनवरी 2009 की पोस्ट भी देख लो जी।

अपने तो दिमाग में आजकल कवि सम्मेलन चल रहा है जी और अंजू के मन में प्याज चल रहे हैं। 15 दिन हो गये हैं प्याज खाये हुये। प्यार से काम चला रहे हैं।  दादाजी थे तबतक तो घर में कभी प्याज भी नहीं आई और अब लहसुन भी। पिताजी को लहसुन के बारे में छुपाना पडता है। पता लग जाये तो सब्जी की कटोरी थाली से बाहर हो जाती है। काफी दिनों पहले कि लहसुन बची पडी थी। एक-एक कली सब्जी में डाल लेते हैं। 

कल बातों-बातों में अन्जू को कह दिया कि आजकल लहसुन 400 रुपये किलो है। उसने तुरन्त पूछा लाये क्या भाव थे मैनें कहा- 20रुपये की 250ग्राम लाया था। बोली एक लहसुन बची है, बेच दो। 

कवि सम्मेलन में आने के लिये श्याले साहब (इस शब्द से सम्बन्धित पोस्ट, श्री प्रवीण पाण्डेय जी की) को भी फोन करके निमन्त्रण दिया है। अन्जू कवि सम्मेलन के आयोजन से ज्यादा खुश इस बात से है कि नये साल के पहले दिन उनका भाई से मिलन होगा। सपना देखती है कि भाई फल-मिठाई की बजाये प्याज लेकर आया है। और मम्मी आस-पडोस में खुश होकर प्याज बांट रही हैं।
मुझे तो डर लग रहा है कि कहीं अलबेला जी या यौगेन्द्र मौदगिल जी फूल माला के  बदले अपना सम्मान प्याज से करने के लिये ना कह दें :-)

मेरे विचार से फत्तू के बजाय फतूआईन (अन्जू) से आपका कोटा पूरा हो गया होगा। नहीं हुआ है तो ये फत्तू का पुराना किस्सा भी ले लो जी, बोनस में नया साल है ना :
एक दिन रलदू चौधरी घर महै बैठा फैशन टी वी (FTV) देखै था। अचानक उसका तेरह साल का बेटा फत्तू उसके कमरे महै आग्या। फत्तू नै देखते ही रलदू सकपका गया अर एकदम तै डिप्लोमैटिकली बात बना कै बोल्या - "गरीब छोरी सैं, कपडे लेन के पिस्से भी कोनी इन धोरै"
फत्तू बोल्या - बाब्बू जब इस तै भी गरीब आवैं तै मन्नै भी बुला लिये

27 December 2010

कवि सम्मेलन भी और ब्लॉगर मिलन भी (सादर निमंत्रण)

आप सबको आमंत्रित करते हुये मुझे बहुत हर्ष हो रहा है। मेरे गृहनगर सांपला में पहली बार हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन (मेरे और मेरे परम मित्रों के सहयोग से) किया जा रहा है। आपके आगमन से मुझे, मेरे सहयोगियों, और मेरे परिवार को बहुत खुशी होगी। इस सम्मेलन में आप श्री अलबेला खत्री जी, श्री योगेन्द्र मौदगिल जी, श्री नीरज जाट जी और मुझसे तो मिलेंगे ही। जो-जो ब्लॉगर मित्र इस सम्मेलन का लुत्फ उठाना चाहते हैं, कृप्या मुझे 31, दिसम्बर 2010 को शाम 5:30 बजे तक मेल, फोन या टिप्पणी द्वारा जरूर सूचित कर दें। जिससे मुझे आपके डिनर और  सोने की व्यवस्था (सामर्थ्य अनुसार) करने में आसानी हो। मेरा फोन नम्बर 09871287912 है। आयोजन के समय और स्थान के लिये कृप्या नीचे निमंत्रण पत्र अवश्य पढें। "सांपला" दिल्ली-हिसार रोड पर, दिल्ली पंजाबी बाग से 45 किमी है, यानि केवल 1 घंटे में आप दिल्ली से सांपला पहुँच सकते हैं। 

25 December 2010

मैं इन ब्लॉगर्स से ईर्ष्या करता हूँ

अच्छा बनने से ज्यादा मुश्किल है, अच्छा बनने की कोशिश करना। बहुत कोशिश कर ली अच्छा बनने की। अब ये ड्रामा खत्म कर ही देना चाहिये। की इमेज लगाकर और अन्तर सोहिल नाम रखने से मेरा अन्तर खूबसूरत तो नहीं हो सकता ना।:-) आज सोच रहा हूँ, जबकि मेरे बारे में सबको पता चल ही चुका है तो क्यों ना अपने आप स्वीकार कर ही लूँ।  
गूगल से साभार

अति भोजन : तो मैं खूब करता हूं, अजी ब्लॉगर मीट्स में भी इसीलिये तो जाता हूँ मैं कि खूब खा सकूं।
आलस्य : ये तो आपने भी पिछले दो सालों में देख ही लिया होगा कि कितना लिखा है मैनें और टिप्पणीयां देने में भी कितना आलसी हूँ। 

अभिमान : बहुत है जी, ब्लॉगर बनने के बाद तो अपन समझते हैं कि हम अब्लॉगरों से कहीं ज्यादा सुप्रियर हैं। दूसरे सब अहमक और अनाडी हैं और अपन सबसे बडे ज्ञानी।

लोभ : अब लोभ के बारे में क्या बताना। यह तो जन्म से ही भरा है, मुझमें। माँ बताती है कि मैनें छोटे भाई को भी उनका दूध बहुत कम पीने दिया था। टिप्पणियों के लालच में भी जाने क्या-क्या नहीं करता हूँ।

क्रोध :  सुबह बीवी को डाँटने से शुरु होता हूँ और रात बच्चों को पीट कर सुलाता हूँ। यकीन ना हो तो मेरे बीवी बच्चों से पूछकर देखलो जी। इतनी ठंड में ट्रेनें तक लेट चलती हैं और बीवी हमें उसी समय पर जगाती हैं, गुस्सा नहीं आयेगा क्या?

वासना : ये नहीं होती तो हम क्या ब्लॉगर बनते। क्यों हम फेसबुक और ऑरकुट पर खाता खोलते। अजी आपको बता रहा हूँ, मैं अभी भी नई नई पोर्न साईट ढूंढता रहता हूँ। ट्रेन में भी उसी जगह बैठता हूं, जहां महिला यात्री हों ;-)

ईर्ष्या : यह तो अपने अन्दर कूट-कूट कर भरी है जी। क्या कहा "किससे?"
अजी ये पूछिये किससे नहीं है।
ऑफिस के सहकर्मियों से क्योंकि बॉस उनकी तारीफ करते हैं।
दोस्तों-मित्रों से क्योंकि स्कूल में उनकी गर्लफ्रेण्ड होती थी और अब सुन्दर पत्नियां हैं।
रिश्तेदारों से क्योंकि उनके आर्थिक हालात बहुत बढिया हैं।
पडोसियों से क्योंकि उनके पास बढिया गाडी है। 
अब ब्लॉग जगत में देखिये मैं किस-किस से ईर्ष्या करता हूँ। इस सूचि में केवल वही नाम हैं जिनका मैं निरन्तर पाठक हूँ। मैं ईर्ष्या करता हूँ
सुश्री नेहा जी से (सोचा ना था)
इनके अलावा कुछ सामुदायिक चिट्ठों के लेखक भी हैं और जिन ब्लॉगर्स का नाम इस सूचि में नहीं आया है, वो भी खुद को मेरी ईर्ष्या का पात्र समझें। सभी का नाम यहां देना थोडा मुश्किल हो गया था।

24 December 2010

इसे कहते हैं ब्लॉग चर्चा

  • आपकी जन्म कुंडली में कैसा है भाग्य स्थान -How's your horoscope fortune location
     
    वाह जी अब आप भी, बढिया है। लेकिन बाऊजी भाग्यहीन किसे कहते हैं? ये तो बताईये।
    भाग्य तो सबका होता है ना, अच्छा या बुरा
    लाल किताब के हिसाब से मेरी जन्मकुण्डली की गणना करने पर मेरा पुत्र मुझसे उत्पन्न नहीं होगा।
    लेकिन मेरी पत्नी से तो मुझे पुत्र प्राप्ति हो गई है।
    अब क्या करुं ? क्या अन्जू पर शक करुं कि वो बेवफा है और उसे छोड दूं :) हा-हा-हा









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    Doobeyji
    हैप्पी क्रिसमस .........
    1 hour ago
    सही है जी अब तो सैंटा क्लॉज को प्याज टमाटर गिफ्ट करनी चाहिये।
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    लेखा-जोखा,इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक का !

    बढिया रचना है आज के परिवेश पर
    इस समसामयिक पोस्ट के लिये आभार
    व्यंग्य भी है आज के हालात पर और सुखद भविष्य की आस भी
    इसी आशा में तो हर साल को पीछे छोडे जा रहे हैं
    वैसे रामराज कौन सा जिसमें औरतों का अपहरण होता था, या एक गर्भवती औरत को बिना किसी गलती के दण्ड के तौर पर घर निकाला दिया जाता था। जिसमें अपना परचम फहराने के लिये अश्वमेघ यज्ञ करके घोडा छोडा जाता था कि सारी दुनिया मेरे सामने झुक जाये।
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  • एग्रीगेटर: यानी एक आँख से देखने वाला?
    2 hours ago
    मैं भी कभी किसी एग्रिगेटर पर पोस्ट पढने नहीं जाता। ना ही हमें इनकी उठा-पटक का कोई अनुभव है। चाहे कोई धांधली करे या ना करे।
    ब्लॉग रजिस्ट्रर्ड करके छोड देता हूँ। मेरे ब्लॉग की फीड ले तो इनकी मरजी ना ले तो अपने बाप का क्या जाता है।
    ना ऊपर चढने का शौक है, ना टिप्पणियों की ढेरी का लालच और ना पाठकों को लाईन में खडे करने का, जिसे पढना हो आये पढे। अपन तो गूगल रीडर से ही पढेंगे।

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  • कैसी रीति समाज की -सतीश सक्सेना 
    3 hours ago

    अभी से क्यों रुलाते हो जी
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    इस पोस्ट में   अपने पसन्दीदा ब्लॉग्स के लिंक के साथ अपनी टिप्पणीयां जोड कर पोस्ट के लिंक देने की कोशिश की है।  मेरे पसन्दीदा में करीबन 200 ब्लॉग्स हैं। सही रहा तो आगे भी ये कोशिश जारी रहेगी।

23 December 2010

नीरज की छलांग, पाबला जी की सीट और शादी के बाद जिन्दगी

कल बात अधूरी रह गई थी। अचानक याद आया कि कवि सम्मेलन के स्मृति चिन्ह लेने दरीबां जाना है। लेकिन स्मृति चिन्ह पर लिखाई यानि फॉन्ट पसन्द नही आया। इतना बडा और बोल्ड कर दिया था कि नीचे प्लेट की चमक (ग्रेस/शाईनिंग) समाप्त हो गई थी। मुझे बिना प्रूफ दिखाये दुकानदार ने ऐसी छपाई करवा दी। मंच की जगह भी पढने में गंच ही आ रहा था। और अब दुकानदार अपनी गलती मानने को भी तैयार नहीं। खैर जब चीज ही पसन्द नहीं आयी तो लेने का कोई फायदा नहीं दुबारा से बनाने के लिये ऑर्डर दे आया हूँ। जिस चीज के लिये 6250 रुपये खर्च होने थे, अब 7500 रुपये देने होंगे। खैर अपना क्या है जी, सब जनता का है। अपनी तो रुपयों पर ना स्याही लगी और ना कागज। कहते हैं ना कि तेरा ही चून और तेरा ही पुन्न, अपनी तो बस वाह-वाह है। :-)

नीरज जाटजी
अरे ये क्या पुराण शुरु हो गई। हाँ याद आया मैं और पाबला जी चाय पीते हुये बातें कर रहे थे कि नीरज जाटजी पहुँच गये। पाबला जी उनके लिये भी चाय लेने गये और फिर से दो कप चाय ले आये। दूसरी चाय भी मेरे ही हाथ में थमा दी। यानि एक साथ दो-दो कप चाय पिलाई, उन्होंने मुझे। तभी अचानक पाबला जी और नीरज जी दोनों के हाथों में उनके हथियार नजर आये और कर्र-कर्र, क्लिक-क्लिक और शूट-शूट-शूट। चारों तरफ प्लेटफार्म पर खडे लोग इधर-उधर भागे नहीं और हम तीन अजीब से जीवों को देखने लगे। जो ब्लॉग के बारे में नहीं जानता, उसे तो ब्लॉगर शायद परग्रही ही लगते होंगे, है ना? अब लगता है कि मुझे भी एक कैमरा खरीद ही लेना चाहिये, क्योंकि अब तो मैं भी ब्लॉगर बन गया हूँ(?) हालांकि कई जगहों पर प्रभाव डालने कि कोशिश की है कि मैं एक ब्लॉगर हूँ, लेकिन ये भारतीय वेटर, रिक्शा चालक, मोची, ड्राईवर कोई मुझे तरजीह ही नहीं देता। :-)

फोटो सैशन होते-होते ही पाबला जी की ट्रेन का प्लेटफार्म पर पदार्पण हो गया। मैनें जल्दी से पाबला जी से पूछा कि जरनल बोगी में इतनी भीड में सीट का इंतजाम कैसे करेंगें? पाबला जी कुछ कहते इससे पहले ही नीरज जी ने छलांग लगाई और ट्रेन रुकने से पहले ही ट्रेन के अन्दर जाकर एक बडी वाली सीट पर पसर गये। सोना-चाँदी च्यवनप्राश वालों को अपने विज्ञापन के लिये नीरज जाटजी से कॉन्टैक्ट करना चाहिये। :-) मैं और पाबला जी उस बोगी तक पहुंचे तब तक बोगी पर हाऊसफुल का बोर्ड टंग चुका था। नीरज जी के पास पाबला जी का सामान रखकर हम टी टी को ढूँढने लगे कि उन्हें बर्थ का इंतजाम हो जाये। भई, विटामिन एम ऐसा विटामिन है जिससे जिन्दगी में ज्यादतर आराम खरीदा जा सकता है। लेकिन पाबला जी के लिये शायिका का इंतजाम नही हो पाया।   अब उनके सामने दो ही रास्ते थे, या तो नीरज जी द्वारा पकडी (घेरी) गई जरनल बोगी की सीट पर ही 23-24 घंटे का सफर करें या रिस्क लेकर शायिका वाली आरक्षित बोगी में जा चढें और टिकट पर्यवेक्षक (टी टी) के आने पर शायिका के इंतजामात की कोशिश करें (भीड-भाड को देखते हुये यह उम्मीद कम ही थी कि ऐसा हो पायेगा) खैर तब तो आगे किसी स्टेशन पर टी टी से बात करने का मन बना कर, पाबला जी जरनल बोगी में ही बैठ गये और मैं और नीरज उन्हें यात्रा के लिये शुभकामनायें देते हुये स्टेशन से बाहर आ गये।

ऑटो ड्राईवर
स्टेशन से निकलकर हमने अजमेरी गेट के लिये ऑटो किया। नीरज जी सांपला में कवि-सम्मेलन के बारे में जानने-बूझने लगे। बातों का रुख मुडकर उनकी यात्राओं तक और वहां से शादीशुदा जिन्दगी की तरफ आ गया। ऑटो ड्राईवर जी जो अभी तक हमारी बातें चुपचाप सुन रहे थे, उन्होंने कहा - "शादी के बाद जिन्दगी ऐसे गुजर जाती है जैसे सुबह से शाम हो जाती है" यानि शादी के बाद बीवी-बच्चों और नून-तेल-लकडी के चक्कर में आदमी खुद को इतना भूल जाता है कि पता ही नहीं चलता कि कब समय बीत गया। मुझे उनकी यह बात भा गई क्योंकि मैं खुद नहीं जानता कि मेरी शादी के आठ साल इतनी तेजी से कैसे गुजर गये। या तो मैं इस बीच बहुत खुश रहा इसलिये? या नून-तेल-लकडी के फेर में समय के बीतने का पता ही नहीं चला इसलिये?

22 December 2010

"पंजाबी ऐसे ही होते हैं" सही कह रहे हैं पाबला जी

प्रतिदिन सैंकडों चेहरे देखते हैं हम, दसियों नये लोगों से मिलना भी होता है। लेकिन चुनिंदा लोग होते हैं, जिन्हें हम याद रख पाते हैं? केवल अंगुलियों पर गिने जाने लायक। इसी तरह ब्लॉगिंग में भी है। कुछेक ब्लॉगर हैं जिनसे मिलने की उत्कंठा चरम तक हो जाती है। वो बात अलग है कि हम सबसे मिलना-जुलना चाहते हैं, लेकिन कुछ ब्लॉगर तो आपकी पसन्दीदा सूचि में भी जरुर होंगे। 

कहते हैं कि विपरीत की तरफ हमेशा आकर्षण होता है। मैं स्वीकार करता रहा हूँ कि मैं थोडा भीरु प्रवृति का प्राणी हूँ और जिस बात की मुझमें कमी है, वही दूसरे में प्रचुर दिख जाये तो मेरे मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पडता है।

ऐसे ही एक जीवटता के धनी ब्लॉगर श्री बी एस पाबला जी से मिलने का मेरा सपना 21-12-10 को पूरा हुआ। पाबला जी से उनकी मारुति वैन से लम्बी यात्रा वाली हिम्मत के कारण मैं उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित हूँ। बेटे गुरप्रीत के साथ सडक दुर्घटना हो जाने के कारण पाबला जी रोहतक में तिलयार पर ब्लॉगर मित्र मिलन में नहीं आ पाये थे। (रोहतक में मिलन की तारिख से कुछ पहले ही ब्लॉगजगत में इसी तरह की कुछ खेदजनक  घटनाओं ने मेरा उत्साह पहले ही ठंडा कर दिया था। इसलिये उस मीट में मुझे ज्यादा अच्छा नहीं लगा था और दिल उदास रहा था) 

श्री बी एस पाबला जी
शनिवार, 18 दिसम्बर 2010 को रात 10 बजे के लगभग श्री बी एस पाबला जी के नाम से मोबाईल खनक और चमक उठा। एक आश्चर्यमिश्रित मुस्कान आ गई मेरे चेहरे पर। उन्होंने बताया कि दिल्ली में हैं और मैं उनसे कल छतीसगढ भवन, चाणक्यपुरी में श्री अशोक बजाज जी के साथ ही कई अन्य ब्लॉगर मित्रों से भी मिल सकता हूँ। लेकिन यहां सांपला में कवि सम्मेलन का आयोजन और व्यवस्था पर विचार करने के लिये मैनें कुछ मित्रों को भी रविवार को ही आंमत्रित कर रखा था। मैनें पाबला जी से कहा कि आप कब तक दिल्ली में हैं? उन्होंने बताया कि सोमवार को उनकी  3:25 दोपहर की ट्रेन है और 1:30-2:00 बजे तक रेलवे स्टेशन पर पहुंच जायेंगे। तो ठीक है जी, मैं आपसे सोमवार को रेलवे स्टेशन पर मिल सकता हूँ। फोन कटने के बाद भी बहुत खुशी सी महसूस हो रही थी कि मुझे पाबला जी से मिलने का सौभाग्य मिलने वाला है।

सोमवार को मैनें मेरे प्रिय श्री नीरज जाटजी को फोन करके बताया कि 1:30 पर हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर मिलते हैं। पाबला जी 1:10 पर स्टेशन पर पहुंच गये और मुझे फोन किया। मैं ठीक 1:30 पर स्टेशन पर पहुंच गया। पाबला जी मेरा इंतजार कर रहे थे। मुझे लगा पिछले कुछ समय में घटित घटनाओं ने  उनके चेहरे पर अभी तक अपनी रेखायें छोड रखी हैं। (खुद का वैन यात्रा में चोटिल होना, पुत्र का बुरी तरह बाईक दुर्घटना में जख्मी होना, माता जी का स्वर्गवास, भाई और खुद का हृदयाघात झेलना) लेकिन उनके जज्बे, हिम्मत, जीवटता और ऊर्जा में कोई कमी नही आयी है। अब एक और परेशानी उनकी तरफ मुँह बाये खडी थी, वो ये कि उनका ई-टिकट कन्फर्म ना होने के कारण रद्द हो गया था। अभी सोच-विचार कर रहे थे कि क्या करें। फिर उन्होंने परिस्थितियों को धता करने के लिये जरनल टिकट खरीदा और हम प्लेटफार्म पर आ गये। पाबला जी चाय-बिस्किट ले आये और हम दोनों बैठ कर खाते-पीते हुये ब्लॉगिंग और घर-परिवार की बातें करने लगे।  मैनें उनसे कहा कि आप कमाल के हैं, तो उनका जवाब था  "पंजाबी ऐसे ही होते हैं"। हाँ सचमुच कमाल के होते हैं। बातों में कब एक घंटा बीत गया, पता ही नहीं चला।  नीरज जाटजी अभी तक हाजिर नहीं हुये थे। 

अरे अभी याद आया  कवि-सम्मेलन के लिये स्मृति चिन्ह बनने दिये थे, अभी लेने जा रहा हूँ।  आगे की बातें बाद में बताऊंगा….….

21 December 2010

यार फटीचर तू कितना इमोश्नल है यार

श्री राज भाटिया जी और श्री नीरज जाटजी ने आर्थिक सहयोग देने की बात की है। नीरज जी ने तो कल पर्स ही निकाल लिया, बडी मुश्किल से मैनें उन्हें पर्स को वापिस पॉकेट में रखवाया।  (नीरज जाटजी और पाबला जी से हुई मुलाकात के बारे में अगली पोस्ट कल) मैं आप सबकी भावनाओं की कद्र करता हूँ। मैं खुद बहुत भावुक आदमी हूँ। एक सीरियल आता था बहुत पहले "फटीचर"। उसमें पंकज कपूर का शानदार अभिनय है,  उनका ये डॉयलाग बार-बार याद आता है - "यार फटीचर तू कितना इमोश्नल है यार"। उनकी तरह मैं भी बहुत इमोश्नल हो जाता हूँ। मैं  आप सबकी शुभकामनाओं का इच्छुक हूँ और कृप्या मुझे आर्थिक सहयोग देने की बात ना करें। मैनें कल भी बताया था कि कोई आर्थिक समस्या नही हैं। 
 
इस आयोजन से सामाजिक चेतना में कुछ बदलाव आ जाये यही मंशा है मेरी। रोज-रोज "माता" "श्याम" आदि के जागरण कीर्तन आदि लोग करवाते रहते हैं। पैसा भी बहुत खर्च करते हैं। मैं जागरण करवाने या  मन्दिर बनवाने आदि के लिये चंदा देने का पक्षधर नहीं हूँ। (पहले ही इतने मन्दिर, मस्जिद आदि हैं जिनके झगडे चलते रहते हैं, एक और इमारत खडी करके कौन सा दुनिया का भला हो जायेगा) लोग रात भर ऊंघते हुये बैठे रहते हैं। मैं कहता हूँ तुम इन जागरण आदि पर 5-5, 7-7 लाख रुपया खर्च करते हो। इतने में कम से कम 10 लडकियों की शादी और लडके को रोजगार आदि के लिये मदद क्यों नहीं करते हो? पहला प्रयास है मेरे शहर सांपला में इस प्रकार के आयोजन का, शायद इस आयोजन से कुछ जागृति आ जाये, यही मेरा लाभ होगा। 

बैनर
 इस आयोजन से कोई  आर्थिक लाभ लेने की मेरी कभी कोई इच्छा नहीं रही है। मैनें केवल उन लोगों को अपने साथ जोडा है, जिन्होंने इस विचार को पसन्द किया और जो उत्साह से मेरे साथ खडे होंगे और व्यवस्था आदि में मदद करेंगे। कुछ लोग चाहते थे कि मैं उनसे सहयोग राशि ले लूं, लेकिन वे उपस्थिति नहीं दे पायेंगे। तो मैनें उनको साफतौर पर मना कर दिया कि भाई आयोजन से जुडना चाहते हो तो केवल पैसे देकर काम नहीं चलेगा। मेरे मंच का सदस्य बनना पडेगा और समय भी देना होगा और काम भी करने होंगे।  चंदा आदि किसी से लिया नहीं है, केवल वही मित्र जिन्होंने इस विचार को दिल से पसन्द किया है और मंच की सदस्यता स्वीकार की है, आपस में खर्चा बांट लेंगे।  वैसे भी बहुत बडा आयोजन नहीं है और खर्च भी ज्यादा नहीं है। इसके अलावा मैने उन एक-दो लोगों को भी जोडा है जो आर्थिक मदद नहीं कर सकते, लेकिन तन और मन से मेरा साथ दे रहे हैं। सबसे पहले श्री यौगेन्द्र मौदगिल जी का धन्यवाद, जिन्होंने इस कार्य के लिये मुझे प्रेरित किया और मुझे इस कार्य के लायक समझा। आप सबने मेरा बहुत हौंसला बढाया है और अपना आशिर्वाद दिया है, मैं आभारी हूँ और उनका भी जिनका नाम इस लिस्ट में नही है और शुभकामनायें देंगे या दिल ही दिल में दे चुके हैं और व्यक्त नहीं कर पाये हैं।