22 September 2009

खिलौना ही तो है

मां मुझको बन्दूक दिला दो
मैं भी सीमा पर जांऊगां
हम जब प्राथमिक विद्यालय में पढते थे, हर शनिवार की सुबह स्कूल में बाल सभा होती थी। उसमें बच्चे कविता पाठ, चुटकलें और देशभक्ति के गीत सुनाते थे।
यह कविता सबसे ज्यादा सुनाई जाती थी। शनिवार को स्कूल की वर्दी ना पहनने की छूट भी होती थी। तो लगभग हर बच्चा फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में आया हुआ लगता था। दुकानों पर बच्चों के लिये सैनिकों की वर्दियां और धोती-कुर्ता भी खूब मिलता था। हमारे लिये भी ये ड्रेसेज लाई गई थी (हम भी इन्हें पहन कर सीना फुला कर इसी तरह की कविता गाते थे)
हां नहीं मिला तो बस बन्दूक वाला खिलौना
दीवाली पर भी कार, हवाई जहाज या जानवर वाले खिलौने ही दिलाये जाते थे। होली पर तो हमारी जिद भी होती थी कि पिचकारी लेंगें बन्दूक वाली, लेकिन पापा दिलाते थे मछली, बैंगन, कद्दू या शेर वाली पिचकारी। बन्दूक वाली पिचकारी के लिये जिद करने का मुख्य कारण केवल उसकी हाथ में अच्छी पकड होने और चलाने में आसानी ही था, लेकिन हमें कभी बन्दूक वाली पिचकारी नहीं दिलाई गई। क्यों ????????


कल 21-09-09 ईद थी । यहां पुरानी दिल्ली के बाजारों में सुन्दर-सुन्दर खिलौनों की  दुकानें सजी हैं, लेकिन इस बार जो खिलौना सबसे ज्यादा बच्चों के हाथ में देख रहा हूं, वो है बन्दूक वाला खिलौना। ऐसा वैसा नही बल्कि मेड इन चाईना का खिलौना वही शेप जैसी कबा………
यहां गलियों में ईद के पवित्र पर्व पर छोटे-छोटे बच्चे गले मिलने की बजाय फिल्मी स्टाईल में एक दूसरे पर बन्दूक तानते (खेल-खेल में) दिख रहे हैं।
यह चित्र बिना आज्ञा लिये  यहां से लिया गया है। इसके लिये क्षमाप्रार्थी हूं। अगर आपको आपत्ति है तो हटा दिया जायेगा।